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________________ २३७-३८] हिन्दी सार ३९५ ४ म्लेच्छ दो प्रकारके हैं-१ अन्तरद्वीपज और २ कर्मभूमिज। लवणसमुद्रकी आठों दिशाओंमें आठ और उनके अन्तरालमें आठ, हिमवान् और शिखरी तथा दोनों विजयाओं के अन्तरालमें आठ इस तरह चौबीस अन्तरद्वीप हैं। दिशावर्ती द्वीप वेदिकासे तिरछे पाँच सौ योजन आगे हैं। विदिशा और अन्तरालवर्ती द्वीप ५५० योजन जाकर हैं। पहाड़ोंके अन्तिम भागवर्ती द्वीप छह सौ योजन भीतर आगे हैं। दिशावर्ती द्वीप सौ योजन विस्तृत हैं, विदिशावर्ती द्वीप पचास योजन और पर्वतान्तवर्ती द्वीप पच्चीस योजन विस्तृत हैं। पूर्व दिशामें एक जाँघ वाले, पश्चिममें पूंछवाले, उत्तरमें गूंगे, दक्षिणमें सींगवाले प्राणी हैं। विदिशाओंमें खरगोशके कान सरीखे कानवाले, पुड़ीके समान कानवाले, बहुत चौड़े कानवाले और लम्बकर्ण मनुष्य हैं । अन्तरालमें अश्व, सिंह, कुत्ता, सुअर, व्याघ्र उल्लू और बन्दरके मुख जैसे मुखवाले प्राणी है। शिखरी पर्वतके दोनों अन्तरालोंमें मेघ और बिजलीके समान मुखवाले, हिमवान्के दोनों अन्तरालोंमें मत्स्यमुख और कालमुख, उत्तर विजयार्धके दोनों अन्तमें हस्तिमुख और आदर्शमुख और दक्षिण विजयाईके दोनों अन्तमें गोमुख और मेषमुखवाले प्राणी है । एक टाँगवाले गुफाओंमें रहते हैं और मिट्टीका आहार करते हैं। बाकी वृक्षोंपर रहते हैं और पुष्प फल आदिका आहार करते हैं। ये सब प्राणी पल्योपम आयुवाले है। ये चौबीसों द्वीप जल तलसे एक योजन ऊँचे हैं। इसी तरह कालोदधिमें हैं। ये सब अन्तर्वीपज म्लेच्छ है । शक, यवन, शबर और पुलिन्द आदि कर्मभूमिज म्लेच्छ है। कर्मभूमियोंका वर्णनभरतैरावतविदेहाः कमभूमयोऽन्यत्र देवकुरूत्तरकुरुभ्यः ॥३७॥ भरत ऐरावत और देवकुरु उत्तरकुरु भागको छोड़कर शेष विदेह क्षेत्र कर्मभूमियाँ हैं । मोक्ष मार्गकी प्रवृत्ति कर्मभूमिसे ही होती है। यद्यपि भोगभूमियोंमें ज्ञान दर्शन होते हैं पर चारित्र नहीं होता। १-३ यद्यपि ज्ञानावरणादि आठ कर्मोंका बन्ध और उनका फलभोग सभी मनुष्य क्षेत्रोंमें समान है फिर भी यहाँ कर्मभूमि व्यवहारविशेषके निमित्तसे है । सर्वार्थसिद्धि प्राप्त करानेवाला या तीर्थङ्कर प्रकृति बाँधनेवाला प्रकृष्ट शुभकर्म अथवा सातवें नरक ले जानेवाला प्रकृष्ट अशुभकर्म कर्मभूमिमें ही बँधता है। सकल संसारका उच्छेद करनेवाली परमनिर्जराकी कारण तपश्चरणादि क्रियाएँ भी यहीं होती हैं। असि, मषि, कृषि, विद्या, शिल्प और वाणिज्य रूप छह कर्मोकी प्रवृत्ति भी यहीं होती है। अतः भरतादिकमें ही कर्मभूमि व्यवहार उचित है। ४ जैसे 'न क्वचित् सर्वदा सर्ववित्रम्भगमनं नयः अन्यत्र धर्मात्' अर्थात् धर्म को छोड़कर अन्य आर्थिक आदि प्रसङ्गोंमें पूर्ण विश्वास करना नीतिसंगत नहीं है। यहाँ 'अन्यत्र' शब्द 'छोड़कर' इस अर्थमें हैं उसी तरह 'अन्यत्र देवकुरूत्तरकुरुभ्यः' यहाँ भी। अर्थात् देवकुरु और उत्तरकुरुको छोड़कर शेष विदेहक्षेत्र कर्मभूमि है। देवकुरु उत्तरकुरु और हैमवत आदि भोगभूमि हैं। __ मनुष्योंकी आयु नृस्थिती परावरे त्रिपल्योपमान्तमुहर्ते ॥३८॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001811
Book TitleTattvarthvarttikam Part 1
Original Sutra AuthorBhattalankardev
AuthorMahendramuni
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1944
Total Pages454
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size11 MB
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