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________________ तत्वार्थवार्तिक [१३६ की दीप्ति उत्तरोतर वद्धिको प्राप्त होती है वे दीप्ततप हैं। गरम तवेपर गिरे हुए जलकी तरह जिनके अल्प आहारका मलादिरूपसे परिणमन नहीं होता, वह वहीं सूख जाता है वे तप्ततप हैं। सिंहनिष्क्रीडित आदि महान् तपोंको तपनेवाले महातप हैं। ज्वर सन्निपात आदि महाभयंकर रोगोंके होनेपर भी जो अनशन कायक्लेश आदिमें मन्द नहीं होते और भयानक श्मशान, पहाड़की गुफा आदिमें रहने के अभ्यासी हैं वे घोर तप हैं। ये ही जब तप और योगको उत्तरोत्तर बढ़ाते जाते हैं तब घोरपराक्रम कहे जाते हैं। जो अस्खलित अखंड ब्रह्मचर्य धारण करते हैं तथा जिन्हें दुःस्वप्न तक नहीं आते वे घोर ब्रह्मचारी हैं। बलालम्बन ऋद्धि तीन प्रकारकी है-मनःश्रुतावरण और वीर्यान्तरायके प्रकृष्ट क्षयोपशमसे अन्तर्मुहुर्तमें ही सकलश्रुतार्थके चिन्तनमें निष्णात मनोबली हैं। मन और रसनाश्रतावरण तथा वीर्यान्तरायके प्रकृष्ट क्षयोपशमसे अन्तर्महर्त में ही सकलश्रतके उच्चारणमें समर्थ वचनबली है। वीर्यान्तरायके असाधारण क्षयोपशमसे जो मासिक चातर्मासिक सांवत्सरिक आदि प्रतिमायोगोंके धारण करनेपर भी थकावट और क्लान्तिका अनभव नहीं करते वे कायबली हैं। औषध-ऋद्धि आठ प्रकारकी है-जिनके हाथ-पैर आदिके स्पर्शसे बडी भयंकर व्याधियाँ शान्त हो जाती हैं वे आमर्श ऋद्धिवाले हैं। जिनका थूक औषधिका कार्य करता है वे श्वेलौषधि हैं। जिनका पसीना व्याधियोंको दूर कर देता है वे जल्लोषधि हैं। जिनका कान दाँत या आँखका मल औषधिरूप होता है वे मलौषधि है। जिनका प्रत्येक अवयवका स्पर्श या उसका स्पर्श करनेवाली वाय आदि सभी पदार्थ औषधिरूप हो जाते हैं वे सर्वोषधि ऋद्धिवाले हैं। उग्रविषमिश्रित भी आहार जिनके मुखमें जाकर निविष हो जाता है अथवा मुखसे निकले हुए वचनोंको सुनने मात्रसे महाविषव्याप्त भी निविष हो जाते हैं वे आस्याविष हैं। जिनके देखने मात्रसे ही तीव विष दूर हो जाता है वे दृष्ट्यविष है। रस ऋद्धि प्राप्त आर्य छह प्रकारके हैं-जिस प्रकृष्ट तपस्वी यतिके 'मर जाओ' आदि शापसे व्यक्ति तुरंत मर जाता है वे आस्यविष हैं। जिनकी क्रोधपूर्ण दृष्टिसे मनुष्य भस्मसात् हो जाता है वे दृष्टिविष हैं। जिनके हाथमें पड़ते ही नीरस भी अन्न क्षीरके समान सुस्वादु हो जाता है, अथवा जिनके वचन क्षीरके समान सबको मीठे लगते हैं वे क्षीरास्रवी हैं। जिनके हाथमें पड़ते ही नीरस भी आहार मधुके समान मिष्ट हो जाता है, अथवा जिनके वचन मधुके समान श्रोताओंको तृप्त करते हैं वे मध्वास्रवी हैं । जिनके हाथमें पड़कर रूखा भी अन्न घीकी तरह पुष्टिकारक और स्निग्ध हो जाता है अथवा जिनके वचन घीकी तरह सन्तर्पक हैं वे सपिरास्रवी हैं। जिनके हाथमें रखा हुआ भोजन अमतकी तरह हो जाता है या जिनके वचन अमतकी तरह सन्तप्ति देनेवाले हैं वे अमृतास्रवी हैं। क्षेत्रऋद्धिप्राप्त आर्य दो प्रकारके हैं-अक्षीणमहानस और अक्षीणमहालय । प्रकृष्ट लाभान्तरायके क्षयोपशमवाले यतियोंको भिक्षा देनेपर उस भोजनसे चक्रवर्तीके पूरे कटकको भी जिमानेपर क्षीणता न आना अक्षीणमहानस ऋद्धि है। अक्षीणमहालय ऋद्धिवाले मुनि जहाँ बैठते हैं उस स्थानमें इतनी अवगाहन शक्ति हो जाती है कि वहाँ सभी देव मनुष्य और तिर्यञ्च निर्बाध रूपसे बैठ सकते हैं। ये सब ऋद्धिप्राप्त आर्य हैं। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001811
Book TitleTattvarthvarttikam Part 1
Original Sutra AuthorBhattalankardev
AuthorMahendramuni
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1944
Total Pages454
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size11 MB
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