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३३३६] हिन्दी-सार
३६३ और जुदे-जुदे रखे रहते हैं उसी तरह बुद्धिरूपी कोठेमें समझे हुए पदार्थोंका सुविचारित रूपसे बने रहना कोष्ठबुद्धि है। पदानुसारित्व तीन प्रकार की है-अनुस्रोत प्रतिस्रोत और उभयरूप । आदि मध्य या अन्तके एक पदके अर्थको सुनकर समस्त ग्रन्थार्थका ज्ञान हो जाना पदानुसारित्व है । बारह योजन लम्बे और नव योजन चौड़े चक्रवर्तीके कटकके भी विभिन्न शब्दोंको एक साथ सुनकर उनको पृथक् पृथक् ग्रहण करना संभिन्नश्रोतृत्व है । रसनादि इन्द्रियों के द्वारा उत्कृष्ट नव योजन आदि क्षेत्रोंसे रस गन्ध आदिका ज्ञान करना दूरादास्वादन दर्शन घ्राण स्पर्शन ऋद्धियाँ हैं।
महारोहिण्यादि लौकिक विद्याओंके प्रलोभनमें न पड़कर दशपूर्वका पाठी होना दशपूवित्व है। पूर्णश्रुतकेवली हो जाना चतुर्दशपूवित्व है। आठ महानिमित्तोंमें कुशल होना अष्टांग महानिमित्तज्ञत्व है। आकाशके सूर्य चन्द्र तारा आदिकी गतिसे अतीतानागत का ज्ञान करना अन्तरीक्षनिमित्त है। जमीनकी रूक्षस्निग्ध आदि अवस्थाओंसे हानिलाभका परिज्ञान या जमीनमें गड़े हुए धन आदिका ज्ञान करना भौम निमित्त है। शरीरके अंग प्रत्यंगोंसे उसके सुखदुःखादिका ज्ञान अंग है। अक्षरात्मक या अनक्षरात्मक कैसे भी शब्दोंको सुनकर इष्टानिष्ट फलका ज्ञान कर लेना स्वर है। सिर मुह गले आदिमें तिल मस्से आदि चिह्नोंसे लाभालाभ आदिका ज्ञान व्यञ्जन है। श्रीवृक्ष " . स्वस्तिक कलश आदि चिह्नोंसे शुभाशुभका ज्ञान कर लेना लक्षण है। वस्त्र-शस्त्र छत्र जूता आसन और शय्या आदिमें शस्त्र चूहा कांटे आदिसे हुए छेदके द्वारा शुभाशुभका ज्ञान करना छिन्न है । पिछली रातमें हुए चन्द्र सूर्यादि स्वप्नोंसे भाविसुखदुःखादिका निश्चय करना स्वप्न है।
श्रुतज्ञानियोंके द्वारा ही समाधान करने योग्य सूक्ष्म शंकाओंका भी अपने श्रुतज्ञानावरणके क्षयोपशमसे समाधान कर देना प्रज्ञाश्रवणत्व है । परोपदेशके बिना स्वभावतः ही ज्ञान चारित्र आदिमें निपुण हो जाना प्रत्येकबुद्धता है। शास्त्रार्थमें कभी भी निरुत्तर नहीं होना वादित्व है।
क्रिया विषयक ऋद्धि दो प्रकार की है-चारणत्व और आकाशगामित्व । जल जंघा तन्तु पुष्प पत्र आदिका निमित्त लेकर अप्रतिहत गति करना चारणत्व है। पद्मासन या कायोत्सर्गरूपसे आकाशमें गमन करना आकाशगामित्व है।
विक्रिया विषयक ऋद्धि अणिमा आदिके भेदसे अनेक प्रकारको है। सूक्ष्म शरीर बना लेना अणिमा, महान् शरीर बनाना महिमा, वायुसे भी लघु शरीर कर लेना लघिमा, वज्रसे भी गुरु शरीर बना लेना गरिमा है। भूमिपर बैठे हुए अंगुलीसे मेरु या सूर्य चन्द्र आदिको स्पर्श कर लेना प्राप्ति है। जलमें भूमिकी तरह चला आदि प्राकाम्य है। त्रैलोक्यकी प्रभुता ईशित्व है । सबको वशमें कर लेना वशित्व है। पर्वतमें भी घुस जाना अप्रतीघात है । अदृश्य रूप बना लेना अन्तर्धान है। एक साथ अनेक आकार बना लेना कामरूपित्व है।
तपोऽतिशय-ऋद्धि सात प्रकार की है-दो दिन तीन दिन चार दिन एक माके उपवास आदि किसी भी उपवासको निरन्तर कठोरतापूर्वक करनेवाले उग्रतप हैं। महोपवास करनेपर भी जिनका काय वचन और मनोबल बढ़ता ही जाता है और शरीर
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