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________________ २३८] हिन्दी-सार ३९७ जब शलाका कुण्ड भर जाय तब एक सरसों प्रतिशलाका कुण्डमें डाले। इस तरह उसे भी भरे । जब प्रतिशलाका कुण्ड भर जाय तब एक सरसों महाशलाका कुण्ड में डाले । उक्त विधिसे जब वह भी परिपूर्ण हो जाय तब जो प्रमाण आता है वह उत्कृष्ट संख्यातसे एक अधिक जघन्यपरीतासंख्यात है। उसमेंसे एक कम करनेपर उत्कृष्ट संख्यात होता है। जघन्य और उत्कृष्टके बीचके सभी भेद अजघन्योत्कृष्ट संख्यात हैं। जहाँ भी संख्यात शब्द आता है वहाँ यही अजघन्योत्कृष्ट संख्यात लिया जाता है। असंख्यात तीन प्रकार है-परीतासंख्येय युक्तासंख्येय और असंख्येयासंख्येय। परीता संख्यात जघन्य मध्यम और उत्कृष्टके भेदसे तीन प्रकारका है । इसी तरह अन्य असंख्यातों के भी भेद होते हैं। अनन्त भी तीन प्रकारका है-परीतानन्त, युक्तानन्त और अनन्तानन्त । ये तीनों अनन्त जघन्य उत्कृष्ट और अजघन्योत्कृष्टके भेदसे तीन तीन प्रकारके हैं। जघन्य परीतासंख्येयको फैलाकर मोतीके समान जुदे जुदे रखना चाहिए। प्रत्येक पर एक एक जघन्य परीतासंख्येयको फैलाना चाहिए। इनका परस्पर वर्ग करे। जो जघन्य परीतासंख्येय मुक्तावली पर दिये गये थे उनका गुणाकर एक राशि बनावे। उसे बिरलन कर उसपर उस वर्गित राशिको दे । उसका परस्पर वर्ग कर जो राशि आती है वह उत्कृष्ट परीतासंख्येयसे एक अधिक होती है। उसमेंसे एक कम करनेपर उत्कृष्ट परीतासंख्येय होता है। बीचके विकल्प अजघन्योत्कृष्ट परीतासंख्येय है। जहाँ आवलिसे प्रयोजन होता है वहाँ जघन्ययुक्तासंख्येय लिया जाता है। जघन्ययुक्तासंख्येयको विरलन कर प्रत्येकपर जघन्ययुक्तासंख्येयको स्थापित करे । उनका वर्ग करनेपर जो राशि आती है वह जघन्य संख्येयासंख्येय है। उसमेंसे एक कम करनेपर उत्कृष्ट युक्तासंख्येय होती है। बीचके विकल्प मध्यम युक्तासंख्येय हैं। जघन्य संख्येयासंध्येयका विरलनकर पूर्वोक्त विधिसे तीन बार वर्ग संवर्ग करनेपर भी उत्कृष्ट संख्ययासंख्येय नहीं होता। इसमें धर्म, अधर्म, एक जीव, लोकाकाश, प्रत्येक शरीरजीव, बादर निगोत शरीर ये छहों असंख्येय, स्थितिबन्धाध्यवसाय स्थान, अनुभागबन्धाध्यवसायस्थान, योगके अविभाग परिच्छेद, उत्सर्पिणी अवसर्पिणी कालके समयोंको जोड़नेपर फिर तीन बार वगित संगित करनेपर उत्कृष्टासंख्येयासंख्येयसे एक अधिक जघन्यपरीतानन्त होता है । इसमेंसे एक कम करनेपर उत्कृष्टासंख्येयासंख्येय होता है । मध्यके विकल्प अजघन्योत्कृष्टासंख्येयासंख्येय होते हैं। असंख्येयासंख्येयके स्थानमें अजवन्योत्कृष्टासंख्येयासंख्येय विवक्षित होता है। इसी तरह जघन्यपरीतानन्तको विरलन कर तीन बार गित संगित करने पर उत्कृष्टपरीतानन्तसे एक अधिक जघन्ययुक्तानन्त होता है । उससे एक कम करनेपर उत्कृष्टपरीतानन्त होता है। मध्यके विकल्प अजघन्योत्कृष्ट परीतानन्त हैं। अभव्यराशिके प्रमाणमें जघन्ययुक्तानन्त लिया जाता है। जघन्ययुक्तानन्तको विरलनकर प्रत्येकपर जघन्ययुक्तानन्तको रखे। उन्हें परस्पर वर्ग करनेपर जो राशि आती है वह उत्कृष्टयुक्तानन्तसे एक अधिक जघन्य अनन्तानन्तकी राशि है। उसमेंसे एक कम करनेपर उत्कृष्ट युक्तानन्त होता है। मध्यके विकल्प अजघन्योत्कृष्ट युक्तानन्त है । जघन्य अनन्तानन्तको विरलनकर प्रत्येकपर जघन्य अनन्तानन्तको स्थापितकर तीन बार वर्गित संवर्गित करनेपर भी उत्कृष्ट अनन्तानन्त नहीं होता। अतः उसमें सिद्ध, निगोदजीव, वनस्पतिकाय, अतीत अनागतकालके समय, सभी Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001811
Book TitleTattvarthvarttikam Part 1
Original Sutra AuthorBhattalankardev
AuthorMahendramuni
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1944
Total Pages454
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size11 MB
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