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________________ हिन्दी-सार ताभ्यामपरा भूमयोऽवस्थिताः ||२८|| भरत और ऐरावत के सिवाय अन्य भूमियोंमें परिवर्तन नहीं होता, वे सदा एक-सी रहती हैं । एकद्वित्रिपल्योपमस्थितयो हैमवतक-हारिवर्षक- दैवकुरुवकाः ॥ २६ ॥ हैमवत, हरिवर्ष और देवकुरुमें क्रमशः एक, दो और तीन पल्यकी आयु है । ११ - २ हैमवतक, हरिवर्षक और देवकुरुवकका अर्थ है इन क्षेत्रोंमें रहनेवाले मनुष्य । पाँचों हैमवत क्षेत्रके मनुष्योंकी आयु एक पल्य, शरीरकी ऊंचाई २००० धनुष, और रंग नीलकमलके समान है । ये दूसरे दिन आहार करते हैं । यहाँ सुषमदुःषमा काल अर्थात् जघन्य भोगभूमि सदा रहती है । पाँचों हरिक्षेत्रमें मध्यम भोगभूमि अर्थात् सुषमाकाल रहता है । इसमें मनुष्योंकी आयु दो पल्य, शरीरकी ऊंचाई ४ हजार धनुष, रंग शंखके समान धवल है । ये तीसरे दिन भोजन करते हैं । पाँचों देवकुरुमें सुषमसुषमा अर्थात् प्रथम भोगभूमि सदा रहती है । इसमें मनुष्योंकी आयु तीन पल्य, शरीरकी ऊंचाई ६००० धनुष और रंग सुवर्णके समान होता है। ये चौथे दिन भोजन करते हैं । 1 तथोत्तराः ||३०|| ३।२८-३२ ] उत्तरवर्ती क्षेत्र दक्षिणके समान हैं अर्थात् हैरण्यवत हैमवतके समान, रम्यक हरिवर्ष के समान और देवकुरु उत्तरकुरुके समान हैं । विदेहेषु संख्येयकालः ॥ ३१ ॥ विदेहक्षेत्र में संख्यात वर्षकी आयु होती है । इसमें सुषमदुः षमाकाल सदा रहता है। मनुष्योंकी ऊंचाई पाँच सौ धनुष है । नित्य भोजन करते है । उत्कृष्ट स्थिति एक पूर्वकोटि और जघन्य अन्तर्मुहूर्त है । ३८९ भरतस्य विष्कम्भो जम्बूद्वीपस्य नवतिशतभागः ॥ ३२ ॥ भरतक्षेत्रका विस्तार जम्बूद्वीपका १९०वाँ भाग है । $ १-२ धातकीखंड और पुष्करवरके क्षेत्रोंके विस्तार - निरूपण में सुविधाके लिए भरतक्षेत्रका प्रकारान्तरसे विस्तार कहा है । Jain Education International १ ३-७ लवण समुद्रका सम भूमितल में दो लाख योजन विस्तार है । उसके मध्यमें यवराशिकी तरह १६ हजार योजन ऊँचा जल है । वह मूलमें दश हजार योजन विस्तृत है तथा एक हजार योजन गहरा है । इसमें क्रमश: पूर्वादि दिशाओं में पाताल बडवामुख यूपकेसर और कलम्बुक नामके चार महापाताल हैं । ये एक लाख योजन गहरे हैं, तथा इतने ही मध्यमें विस्तृत हैं । जलतल और मूलमें दस हजार योजन विस्तृत हैं । इन पातालों में सबसे नीचे के तीसरे भागमें वायु है, मध्यके तीसरे भाग में वायु और जल है तथा ऊपरी त्रिभागमें केवल जल है । रत्नप्रभा पृथिवीके खरभागमें रहनेवाली वातकुमार देवियों कीड़ासे क्षुब्ध वायुके कारण ५०० योजन जलकी वृद्धि होती है । विदिशाओं में क्षुद्रपाताल हैं तथा अन्तरालमें भी हजार हजार पाताल हैं । मध्यमें पचास पचास क्षुद्र पाताल और भी हैं । रत्नवेदिकासे तिरछे बयालीस हजार योजन जाकर चारों दिशाओं में For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001811
Book TitleTattvarthvarttikam Part 1
Original Sutra AuthorBhattalankardev
AuthorMahendramuni
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1944
Total Pages454
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size11 MB
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