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________________ ३८८ तत्त्वार्थवार्तिक [३२२४-२७ भरतक्षेत्रका विस्तारभरतः षड्विंश-पञ्चयोजनशतविस्तारः षट्चैकानविंशतिभागा योजनस्य ॥२४॥ भरतक्षेत्रका विस्तार ५२६, ६ योजन है। तद्विगुणद्विगुणविस्तारा वर्षधरवर्षा विदेहान्ताः ॥२५॥ विदेहक्षेत्र पर्यन्तके पर्वत और क्षेत्र क्रमशः दूने दूने विस्तारवाले हैं। ११ यद्यपि व्याकरणके नियमानुसार वर्षशब्दका पूर्वनिपात होना चाहिए था फिर भी आनुपूर्वी दिखानेके लिए 'वर्षधर' शब्दका पूर्वप्रयोग किया है। 'लक्षणहेत्वोः क्रियायाः' इस प्रयोगके बलसे यह नियम फलित होता है। २ 'विदेहान्त' पदसे मर्यादा ज्ञात हो जाती है । अर्थात् हिमवान्का विस्तार १०५२१२ योजन, हैमवतका २००५५ योजन, महाहिमवान्का ४०१०१० योजन, हरिवर्षका ८४२१३ योजन, निषधका १६८४२३३ और विदेहका ३३६८४,४, योजन है। उत्तरा दक्षिणतुल्याः ॥२६॥ ऐरावत आदि नील पर्वत पर्यन्त क्षेत्र पर्वत भरत आदिके समान विस्तारवाले हैं। भरतैरावतयोवृद्धिहासौ षट्समयाभ्यामुत्सर्पिण्यवसर्पिणीभ्याम् ॥२७॥ भरत और ऐरावत क्षेत्रमें उत्सर्पिणी और अवसर्पिणीके छह छह कालोंमें वृद्धि और ह्रास होता है। ६१-३ जैसे 'पर्वतदाह' कहनेसे पर्वतवर्ती वनस्पति आदिका दाह समझा जाता है उसी तरह क्षेत्रकी वृद्धिह्रासका अर्थ है क्षेत्रमें रहनेवाले मनुष्योंकी आयु आदिका वृद्धिह्रास । अथवा, 'भरतैरावतयोः' यह आधारार्थक सप्तमी है । अर्थात् इन क्षेत्रोंमें मनुष्योंका अनुभव आयु शरीरकी ऊंचाई आदिका वृद्धिह्रास होता है। ४-५ जिसमें अनुभव आयु शरीरादिकी उत्तरोत्तर उन्नति हो वह उत्सर्पिणी और जिसमें अवनति हो वह अवसर्पिणी है । अवसर्पिणी-सुषमसुषमा, सुषमा, सुषमदुःषमा, दुःषमसुषमा, दुःषमा और अतिदुःषमाके भेदसे छह प्रकार की और उत्सर्पिणी अतिदुःषमाके क्रमसे छह प्रकारकी है । अवसर्पिणी और उत्सर्पिणी दोनों ही दस दस कोडाकोड़ी सागरकी होती हैं। इन्हें कल्पकाल कहते हैं। सुषमसुषमा चार कोडाकोड़ी सागरकी होती है । इसमें मनुष्य देवकुरु और उत्तरकुरुके समान होते हैं अर्थात् प्रथम भोगभूमिकी रचना होती है । फिर क्रमशः हानि होते होते सुषमा तीन कोडाकोड़ी सागरकी आती है। इसके प्रारम्भमें हरिक्षेत्रकी तरह मध्यम भोगभूमि होती है। फिर क्रमशः सुषमदुःषमा दो कोडाकोड़ी सागरकी होती है। इसमें हैमवत क्षेत्रकी तरह जघन्य भोगभूमि होती है। फिर क्रमशः ४२ हजार वर्ष कम एक कोड़ाकोड़ी सागरका दु:षमसुषमा काल होता है । इसके प्रारम्भमें मनुष्य विदेहक्षेत्रके समान होते हैं । क्रमसे २१ हजार वर्षका दुःषमा और फिर इक्कीस हजार वर्षका अतिदुःषमा काल आता है । उत्सर्पिणी अतिदुःषमासे प्रारम्भ होती है और क्रमश: बढ़ती हुई सुषमा तक जाती है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001811
Book TitleTattvarthvarttikam Part 1
Original Sutra AuthorBhattalankardev
AuthorMahendramuni
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1944
Total Pages454
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size11 MB
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