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________________ ફાર૩ ] हिन्दी-सार ३८७ $ ७ सीतोदा नदी तिगिछ ह्रदके उत्तर तोरण द्वारसे निकलकर कुण्डमें गिरती है फिर कुण्डके उत्तर तोरण द्वारसे निकलकर देवकुरुके चित्र विचित्रकूटके बीच से उत्तर मुख बहती हुई मेरु पर्वतको आध योजन दूरसे ही घेरकर विद्युत्प्रभको भेदती हुई अपर विदेहके बीच से बहती हुई पश्चिम समुद्रमें मिलती है । १८ सीता नदी नीलपर्वतवर्ती केसरी ह्रदके दक्षिण तोरणद्वारसे निकलकर कुंडमें गिरती हुई माल्यवान्को भेदती हुई पूर्वविदेहमें बहकर पूर्वसमुद्र में मिलती है । १९ नरकान्ता नदी केसरी ह्रदके उत्तर तोरणद्वारसे निकलकर गन्धवान् वेदाढ्य को घेरती हुई पश्चिम समुद्रमें मिलती है । १० नारी नदी रुक्मि पर्वतके ऊपर स्थित महापुण्डरीक हदके दक्षिणतोरणद्वारसे निकलकर गन्धवान् वेदाढ्यको घेरती हुई पूर्वसमुद्रमें गिरती है । ११ इसी महापुण्डरीक हृदके उत्तर तोरणद्वारसे रूप्यकूला नदी निकलती है और माल्यवान् वृत्तवेदाढ्यको घेरकर पश्चिम समुद्रमें गिरती है । 8 १२ शिखरी पर्वतपर स्थित पुण्डरीक हृदके दक्षिण तोरणद्वारसे सुवर्णकूला free है और माल्यवान् वृत्तवेदाढ्यको घेरती हुई पूर्वसमुद्रमें मिलती है । 8 १३ इसी पुण्डरीक हृदके पूर्वतोरणद्वारसे रक्ता नदी निकली है और यह गंगा नदीकी तरह पूर्वसमुद्रमें मिलती है । $ १४ इसी पुण्डरीक हदके पश्चिम तोरणद्वारसे रक्तोदा नदी निकलती है और पश्चिम समुद्र में मिलती है । ये सभी नदियाँ अपने अपने नामके कुण्डों में गिरती हैं और उसमें नदीके नामवाली देवियाँ रहती हैं । गंगा सिन्धु रक्ता और रक्तोदा नदियाँ कुटिलगति होकर बहती हैं शेष ऋजुगति से । सभी नदियोंके दोनों किनारे वनखंडोंसे सुशोभित हैं । चतुर्दशनदीसहस्रपरिवृता गंगासिन्ध्वादयो नयः ॥ २३॥ गंगा सिन्धु आदि नदियोंके चौदह हजार आदि सहायक नदियाँ हैं । ११- ३ यदि प्रकरणगत होनेके कारण 'गंगासिन्धु आदि का ग्रहण नहीं किया जाता तो 'अनन्तरका ही विधि या निषेध होता है' इस नियमके अनुसार अपरगा - पश्चिमसमुद्र में मिलनेवाली नदियोंका ही ग्रहण होता । इसी तरह यदि 'गंगा' का ग्रहण करते तो पूर्वगा- पूर्व समुद्र में गिरनेवाली नदियोंका ही ग्रहण होता । यद्यपि 'नदी' कहने से सबका ग्रहण हो सकता था फिर भी 'द्विगुण - द्विगुण' बतानेके लिए 'गंगा सिन्धु आदि' पद दिया गया है । यदि केवल द्विगुण' का सम्बन्ध करते तो 'गंगाकी चौदह हजार और सिन्धुकी अट्ठाईस हजार' यह अनिष्ट प्रसंग होता । अतः गंगा और सिन्धु दोनोंके चौदह हजार, रोहित रोहितास्थाके अट्ठाइस हजार, हरित् हरिकान्ताके छप्पन हजार और सीता सीता एक लाख बारह हजार सहायक नदियाँ हैं। आगे 'उत्तरा दक्षिणतुल्याः के अनुसार व्यवस्था है । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001811
Book TitleTattvarthvarttikam Part 1
Original Sutra AuthorBhattalankardev
AuthorMahendramuni
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1944
Total Pages454
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size11 MB
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