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________________ ३८६ नदियों का वर्णन - तत्त्वार्थवार्तिक गङ्गासिन्धुरोहिद्रोहितास्याहरिद्धरिकान्तासीतासीतोदा नारीनरकान्तासुवर्णकूलारूप्यकूलारक्तारक्तोदाः सरितस्तन्मध्यगाः ||२०|| इन क्षेत्रोंके मध्य में गंगा आदि चौदह नदियाँ हैं । द्वयो योः पूर्वाः पूर्वगाः ॥ २१ ॥ [ ३३२०-२२ गंगा सिन्धु आदि नदी युगलों में प्रथम नदी पूर्व समुद्र में जाकर मिलती है । ११-२ दो-दो नदियाँ एक-एक क्षेत्रमें बहती हैं । 'पूर्वाः पूर्वंगा' से नदियोंके बहावकी दिशा बताई है । Jain Education International शेषास्त्वपरगाः ॥२२॥ गंगा सिन्धु आदि नदी युगलों में दूसरी नदी पश्चिम समुद्र में मिलती है । १ पद्म हृदके पूर्व तोरणद्वारसे गंगा नदी निकली है । वह पाँच सौ योजन पूर्व की ओर जाकर गंगा कूटसे ५२३६ दक्षिणमुख जाती है । स्थूल मुक्तावलीकी तरह १०० योजन धारावाली ६४ योजन विस्तृत आधे योजन गहरी यह आगे ६० योजन लंबे चौड़े १० योजन गहरे कुंडमें गिरती है । फिर दक्षिण तरफसे निकलकर खंडक प्रपात गुहासे विजयार्धको लांघकर दक्षिणभरतक्षेत्रको प्राप्त करके पूर्वमुखी होकर लवणसमुद्रमें मिल जाती है । 8 २ पद्महदके पश्चिम तोरणसे सिन्धु नदी निकलती है । वह ५०० योजन आगे जाकर सिन्धुकूटसे टकराकर सिन्धुकुण्डमें गिरती हुई तमिस्र गुहासे विजयार्ध होती हुई पश्चिम लवणसमुद्र में मिलती है । inash द्वीप प्रासादमें गंगादेवी और सिन्धुकुण्डवर्ती द्वीप के प्रासाद में सिन्धु देवी रहती है । हिमवान् पर्वतपर गंगा और सिन्धुके मध्य में कमलके आकार के द्वीप हैं । इनके प्रासादों में क्रमशः बला और लवणा नामकी एक पल्यस्थितिवाली देवियाँ रहती हैं । ९३ पद्महृदके ही उत्तर द्वारसे रोहितास्या नदी निकली है । यह २६७१६ योजन उत्तरकी तरफ जाकर श्रीदेवीके कुण्डमें गिरती है । फिर कुण्डके उत्तर द्वारसे निकलकर उत्तरकी तरफ बहती हुईं शब्दवान् वृत्तवेदाढ्यको घेरकर पश्चिम की ओर बह कर पश्चिम लवण समुद्र में मिलती है । $४ रोहित नंदी महाहिमवान् पर्वतवर्ती महापद्महृदके दक्षिण तोरणद्वार से निकलकर पूर्वलवण समुद्रमें मिलती है । 1 ६५ हरिकान्ता नदी महाहिमवान् पर्वतवर्ती महापद्महदके उत्तर तोरणद्वार से निकलकर रोहितकी तरह पहाड़की तलहटीमें जाकर कुण्डमें गिरती है । फिर उत्तरकी ओर बहकर विकृतवान् वृत्तवेदाढ्यको आघ योजन दूरसे घेरकर पश्चिम मुख हो पश्चिम समुद्र में गिरती है । $ ६ हरित् नदी निषध पर्वतवर्ती तिगिछ हदके दक्षिण तोरण द्वारसे निकलकर पूर्व की ओर बहकर कुण्डमें गिरती है । फिर पूर्व समुद्र में मिलती है । For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001811
Book TitleTattvarthvarttikam Part 1
Original Sutra AuthorBhattalankardev
AuthorMahendramuni
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1944
Total Pages454
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size11 MB
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