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________________ तत्त्वार्थवार्तिक द्विर्द्धिर्विष्कम्भाः पूर्वपूर्वपरिच पिणो वलयाकृतयः ॥ ८॥ क्रमशः दूने दूने विस्तारवाले और उत्तरोत्तर द्वीप समुद्र पूर्व पूर्वको घेरे हुए हैं और चूड़ीके आकार हैं ११- ३ पहिले द्वीपका जितना विस्तार है उससे दूना उसको घेरनेवाला समुद्र है उससे दूना उसको घेरनेवाला द्वीप है इस प्रकार आगे आगे दूने दूने विस्तारका स्पष्ट प्रतिपादन करने के लिए 'द्विद्वि:' ऐसा वीप्सार्थक निर्देश किया है । यद्यपि 'द्विदशा' की तरह समास करनेसे वीप्सा - अभ्यावृत्तिकी प्रतीति हो जाती पर यहां स्पष्ट ज्ञान कराने के लिए 'द्विद्विः' यह स्फुट निर्देश किया गया है । घेरे ये द्वीप समुद्र ग्राम नगर आदिकी तरह बेसिलसिलेके नहीं बसे हैं किन्तु पूर्वपूर्वको हुए हैं और न ये चौकोर तिकोने पंचकोने षट्कोने आदि हैं किन्तु गोल हैं । जम्बू द्वीपका वर्णन ३८० तन्मध्ये मेरुनाभिर्वृत्तो योजनशतसहस्रविष्कम्भो जम्बूद्वीपः ॥६॥ सभी द्वीप समुद्रोंके बीच में एकलाखयोजन विस्तारवाला जम्बूद्वीप है । इसके बीच मैं नाभिकी तरह गोलाकार सुमेरु पर्वत है । 8 १ 'तत्' शब्द पूर्वोक्त असंख्य द्वीपसमुद्रोंका निर्देश करता है । जम्बूद्वीप की परिधि ३१६२२७ योजन ३ कोश १२८ धनुष १३॥ अंगुलसे कुछ अधिक है । इस जम्बूद्वीप के चारों ओर एक वेदिका है । यह आधा योजन मोटी, आठ योजन ऊंची, मूल मध्य और अन्तमें क्रमश: १२, ८ और ४ योजन विस्तृत, वज्रमयतलवाली, वैडूर्यमणिमय ऊपरी भागवाली; मध्य में सर्वरत्नखचित, झरोखा, घंटा, मोती सोना मणि पद्ममणि आदिकी नौ जालियोंसे भूषित है । ये जालियाँ आधे योजन ऊंची पाँच सौ धनुष चौड़ी और वेदिका के समान लम्बी हैं। इसके चारों दिशाओं में विजय वैजयन्त जयन्त और अपराजित नामके चार महाद्वार हैं । ये आठ योजन ऊंचे और चार योजन चौड़े हैं । विजय और वैजयन्तका अन्तराल ७९००५२ योजन कोश ३२ धनुष ३४ अंगुल अंगुलका टे भाग तथा कुछ अधिक है । सात क्षेत्र [ ३३८-१० भरतहैमवतहरिविदेहरम्यक हैरण्यवतैरावतवर्षाः चत्राणि ॥ १०॥ भरत हैमवत हरि विदेह रम्यक हैरण्यवत और ऐरावत ये सात क्षेत्र हैं । ११ विजयार्धसे दक्षिण, समुद्रसे उत्तर और गंगा सिन्धु नदियोंके मध्य भाग १२ योजन लम्बी ९ योजन चौड़ी विनीता नामकी नगरी थी । उसमें भरत नामका पट्खण्डाधिपति चक्रवर्ती हुआ था । उसने सर्वप्रथम राजविभाग करके इस क्षेत्रका शासन किया था अतः इसका नाम भरत पड़ा । १२ अथवा, जैसे संसार अनादि है उसी तरह क्षेत्र आदिके नाम भी बिना किसी कारण के स्वाभाविक अनादि हैं । १३ तीन ओर समुद्र और एक ओर हिमवान् पर्वतके बीचमें भरतक्षेत्र है । इसके गंगा सिन्धु और विजयार्ध पर्वतसे विभक्त होकर छह खंड हो जाते हैं । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001811
Book TitleTattvarthvarttikam Part 1
Original Sutra AuthorBhattalankardev
AuthorMahendramuni
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1944
Total Pages454
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size11 MB
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