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________________ ३।१० ] हिन्दी-सार ३८१ ४ चक्रवर्तीके विजयक्षेत्रकी आधी सीमा इस पर्वतसे निर्धारित होती है । अतः इसे विजयार्ध कहते हैं । यह ५० योजन विस्तृत २५ योजन ऊँचा ६| योजन गहरा है और अपने दोनों छोरोंसे पूर्व और पश्चिमके समुद्रको स्पर्श करता है । इसके दोनों ओर आधा योजन चौड़े और पर्वत बराबर लंबे वनखंड हैं । ये वन आधी योजन ऊंची पांच सौ धनुष चौड़ी और वन बराबर लंबी वेदिकाओंसे घिरे हुए हैं । इस पर्वतमें तमिस्र और खण्डप्रपात नामकी दो गुफाएँ हैं । ये गुफाएँ उत्तर दक्षिण ५० योजन लंबी पूर्व-पश्चिम १२ योजन चौड़ी हैं । इसके उत्तर दक्षिण दिशाओंमें ८ योजन ऊँचे दरवाजे हैं । इनमें ६४ योजन चौड़े एक कोश मोटे और आठ योजन ऊँचे वजूमय किवाड़ लगे हैं । इनसे चक्रवर्ती उत्तरभरत विजयार्धको जाता है । इन्हींसे गंगा और सिन्धु निकली हैं। इनमें विजयार्धसे निकली हुई उन्मग्नजला और निमग्मजला दो नदियाँ मिलती हैं । इसी पहाड़की तलहटी में भूमितल से दस योजन ऊपर दोनों ओर दस योजन चौड़ी और पर्वत बराबर लम्बी विद्याधर श्रेणियां हैं। दक्षिण श्रेणीमें रथनूपुर चक्रवाल आदि ५० विद्याधरनगर हैं । उत्तर श्रेणी में गगनवल्लभ आदि ६० विद्याधर नगर हैं । यहाँके निवासी भी यद्यपि भरतक्षेत्रकी तरह षट्कर्मसे ही आजीविका करते हैं, किन्तु प्रज्ञप्ति आदि विद्याओंको धारण करने के कारण विद्याधर कहे जाते हैं । इनसे दश योजन ऊपर दोनों ओर दश योजन विस्तृत व्यन्तर श्रेणियाँ हैं । इनमें इन्द्रके सोम यम वरुण और वैश्रवण ये चार लोकपाल तथा आभियोग्य व्यन्तरोंका निवास है । इससे पाँच योजन ऊपर दश योजन विस्तृत शिखरतल है । पूर्वदिशा में ६ | योजन ऊंचा तथा इतना ही विस्तृत, वेदिकासे वेष्टित सिद्धायतनकूट है । इसपर उत्तर दक्षिण लंबा, पूर्व-पश्चिम चौड़ा, एक कोस लंबा, आधा कोस चौड़ा कुछ कम एक कोस ऊंचा, वेदिकासे वेष्टित, चतुर्दिक द्वारवाला सुन्दर जिनमन्दिर है । इसके बाद दक्षिणार्ध भरतकूट खण्डकप्रपातकूट माणिकभद्रकूट विजयार्धकूट पूर्णभद्रकूट तमिस्रगुहाकूट उत्तरार्धभरतकूट और वैश्रवणकूट ये आठ कूट सिद्धायतनकूटके समान लंबे चौड़े ऊंचे हैं। इनके ऊपर क्रमशः दक्षिणार्धभरतदेव वृत्तमाल्यदेव माणिभद्रदेव विजयार्धगिरिकुमारदेव पूर्णभद्रदेव कृतमालदेव उत्तरार्धभरतदेव और वैश्रवणदेवोंके प्रासाद हैं । १५-७ हिमवान् नामके पर्वत के पासका क्षेत्र, या जिसमें हिमवान् पर्वत है वह हैमवत है । यह क्षुद्र हिमवान् और महाहिमवान् तथा पूर्वापर समुद्रोंके बीच में है । इसके बीचमें शब्दवान् नामका वृत्तवेदाढ्य पर्वत है । यह एक हजार योजन ऊंचा, २५० योजन जड़में, ऊपर और मूलमें एक हजार योजन विस्तारवाला है । इसके चारों ओर आ योजन विस्तारवाली तथा चतुर्दिक द्वारवाली वेदिका है । उसके तलमें ६२३ योजन ऊंचा ३१ योजन विस्तृत स्वातिदेवका विहार है । १८- १० हरि अर्थात् सिंहके समान शुक्ल रूपवाले मनुष्य इसमें रहते हैं अतः यह हरिवर्ष कहलाता है । यह निषधसे दक्षिण महाहिमवान्से उत्तर और पूर्वापर समुद्रोंके मध्यमें है । इसके बीचमें विकृतवान् नामका वृत्तवेदाढ्य है । इसपर अरुणदेवका विहार है। १११-१२ निषधसे उत्तर नील पर्वतसे दक्षिण और पूर्वापरसमुद्रोंके मध्य में विदेह क्षेत्र है । इसमें रहनेवाले मनुष्य सदा विदेह अर्थात् कर्मबन्धोच्छेदके लिए यत्न करते रहते हैं इसलिए इस क्षेत्रको विदेह क्षेत्र कहते हैं । यहाँ कभी भी धर्मका उच्छेद नहीं होता । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001811
Book TitleTattvarthvarttikam Part 1
Original Sutra AuthorBhattalankardev
AuthorMahendramuni
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1944
Total Pages454
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size11 MB
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