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तत्त्वार्थवार्तिक
[२०४९ तथा देव और नारकियोंके वैक्रियिक और वैक्रियिकमिश्र बताया है पर यहां तो तिर्यञ्च और मनुष्योंके भी वैक्रियिकका विधान किया है । इस तरह परस्पर विरोध आता है ?
उत्तर-व्याख्या प्रज्ञप्ति दंडकके शरीरभंगमें वायुकायिकके औदारिक वैक्रियिक तेजस और कार्मण ये चार शरीर तथा मनुष्योंके पांच शरीर बताए हैं । भिन्न-भिन्न अभिप्रायों से लिखे गये उक्त सन्दर्भोमें परस्पर विरोध भी नहीं है। जीवस्थानमें जिस प्रकार देव और नारकियोंके सर्वदा वैक्रियिक शरीर रहता है उस तरह तिर्यञ्च और मनुष्योंके नहीं होता, इसीलिए तिर्यञ्च और मनुष्योंके वैक्रियिक शरीरका विधान नहीं किया है जब कि व्याख्याप्रज्ञप्तिमें उसके सद्भावमात्रसे ही उसका विधान कर दिया है।।
आहारक प्रमत्तसंयतके ही होता है । तैजस और कार्मण सभी संसारियोंके होते हैं।
सामर्थ्य-मनुष्य और तिर्यञ्चोंमें सिंह और केशरी चक्रवर्ती वासुदेव आदिके औदारिक शरीरोंमें शक्तिका तारतम्य सर्वानुभूत है। यह भवप्रत्यय है । उत्कृष्ट तपस्वियोंके शरीरविक्रिया करनेकी शक्ति गुणप्रत्यय है। वैक्रियिक शरीर में मेरुकम्पन और समस्त भूमण्डलको उलटा-पुलटा करनेकी शक्ति है। आहारक शरीर अप्रतिघाती होता है, वज्रपटल आदिसे भी वह नहीं रुकता। यद्यपि वैक्रियिक शरीर भी साधारणतया अप्रतिघाती होता है, फिर भी इन्द्र सामानिक आदिमें शक्तिका तारतम्य देखा जाता है । अनन्तवीर्ययतिने इन्द्रकी शक्तिको कुंठित कर दिया था यह प्रसिद्ध ही है। अत: वैक्रियिक क्वचित् प्रतिघाती होता है किन्तु सभी आहारक शरीर समशक्तिक और सर्वत्र अप्रतिघाती होते हैं। तेजस शरीर क्रोध और प्रसन्नताके अनुसार दाह और अनुग्रह करनेकी शक्ति रखता है । कार्मण शरीर सभी कर्मोंको अवकाश देता है, उन्हें अपने में शामिल कर लेता है।
प्रमाण-सबसे छोटा औदारिक शरीर सूक्ष्मनिगोदिया जीवोंके अंगुलके असंख्यात भाग बराबर होता है और सबसे बड़ा नन्दीश्वरवापीके कमलका कुछ अधिक एक हजार योजन प्रमाणका होता है। वैक्रियिक मूल शरीरकी दृष्टिसे सबसे छोटा सर्वार्थसिद्धिके देवोंके एक अरनि प्रमाण और सबसे बड़ा सातवें नरकमें पांच सौ धनुष प्रमाण है। विक्रियाकी दृष्टिसे बड़ीसे बड़ी विक्रिया जम्बूद्वीप प्रमाण होती है। आहारक शरीर एक अरनि प्रमाण होता है। तैजस और कार्मण शरीर जघन्यसे अपने औदारिक शरीरके बराबर होते हैं और उत्कृष्टसे केवलि समुद्घातमें सर्वलोकप्रमाण होते हैं।
क्षेत्र-औदारिक वैक्रियिक और आहारकका लोकका असंख्यातवां भाग क्षेत्र है। । तैजस और कार्मणका लोकका असंख्यातवां भाग असंख्यात बहुभाग या सर्वलोक क्षेत्र होता है प्रतर और लोकपूरण अवस्थामें ।
स्पर्शन-तिर्यञ्चोंने औदारिक शरीरसे सम्पूर्ण लोकका स्पर्शन किया है, और मनुष्योंने लोकके असंख्यातवे भागका । मूल वैक्रियिक शरीरसे लोकके असंख्यात बहुभाग और उत्तर वैक्रियिकसे कुछ कम : भाग स्पृष्ट होते हैं। सौधर्मस्वर्गके देव स्वयं या परनिमितसे ऊपर आरण अच्युत स्वर्ग तक छह राजू जाते हैं और नीचे स्वयं बालुकाप्रभा नरक तक दो राजू, इस तरह पर भाग होते हैं । आहारक शरीरके द्वारा लोकका असंख्यातवां भाग स्पर्श किया जाता है । तैजस और कार्मण समस्त लोकका स्पर्शन करते हैं।
काल-तिर्यञ्च और मनुष्योंके औदारिक शरीरका जघन्य काल अन्तर्मुहूर्त है। उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त कम तीन पल्य है। यह अन्तर्महूर्त अपर्याप्तकका काल है । वैक्रियिक
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