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________________ २।५०-५१] हिन्दी-सार शरीरका देवोंकी अपेक्षा मूलवै क्रियिकका जघन्य काल अपर्याप्तकालके अन्तर्मुहूर्तसे कम दस हजार वर्ष प्रमाण है। उत्कृष्ट अपर्याप्तकालीन अन्तर्मुहूर्तसे कम तेतीस सागर है। उत्तर वैक्रियिकका जघन्य और उत्कृष्ट दोनों ही काल अन्तर्मुहूर्त प्रमाण है। तीर्थङ्करोंके जन्मोत्सव नन्दीश्वरपूजा आदिके समय अन्तर्मुहुर्तके बाद नए नए उत्तरवैक्रियिक शरीर उत्पन्न होते जाते हैं। आहारकका जघन्य और उत्कृष्ट दोनों ही काल अन्तर्मुहूर्त है। तेजस और कार्मण शरीर अभव्य और दूरभव्योंकी दृष्टिसे सन्तानकी अपेक्षा अनादि अनन्त हैं। भव्योंकी दृष्टिसे अनादि और सान्त है । निषेककी दृष्टिसे एक समयमात्र काल है। तेजस शरीरकी उत्कृष्ट निषेक स्थिति छयासठ सागर और कार्मण शरीरकी सत्तर कोड़ाकोड़ी सागर है। अन्तर-औदारिक शरीरका जघन्य अन्तर अन्तर्महूर्त है। उत्कृष्ट अपर्याप्तिकालके अन्तर्मुहूर्तसे अधिक तेंतीस सागर है। वैक्रियिक शरीरका जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट अन्तर अनन्तकाल है । आहारकका जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त है । उत्कृष्टसे अन्तमुहूर्त कम अर्धपुद्गल परिवर्तनकाल प्रमाण है। तेजस और कार्मण शरीरका अन्तर नहीं है। ___ संख्या-औदारिक असंख्यात लोक प्रमाण हैं। वैक्रियिक असंख्यात श्रेणी और लोकप्रतरका असंख्यातवाँ भाग हैं । आहारक ५४ हैं । तैजस और कार्मण अनन्त हैं, अनन्तानन्त लोक प्रमाण हैं। प्रदेश-औदारिकके प्रदेश अभव्योंसे अनन्तगुणें और सिद्धोंके अनन्तभाग प्रमाण हैं। शेष चारके प्रदेश उत्तरोत्तर अधिक अनन्त प्रमाण हैं। भाव-औदारिकादि नामके उदयसे सभीके औदयिकभाव हैं। अल्पबहुत्व-सबसे कम आहारकशरीर हैं, वैक्रियिकशरीर असंख्यातगुणे हैं। असंख्यात श्रेणी वा लोकप्रतरका असंख्यातवां भाग गुणकार है । उससे औदारिक शरीर असंख्यातगुणे हैं। यहां गुणकार असंख्यात लोक हैं। तेजस और कार्मण अनन्तगुणे हैं। यहां गुणकार सिद्धोंका अनन्तगुणा है । लिङ्गनियम नारकसम्मूर्छिनो नपुंसकानि ॥५०॥ नारक और सम्मूर्च्छन जन्मवाले नपुंसक होते हैं। ६१-४ धर्म आदि चार पुरुषार्थोंका नयन करनेवाले 'नर' होते हैं जो इन नरोंको शीत उष्ण आदिकी वेदनाओंसे शब्दाकुलित कर दे वह नरक है। अथवा पापी जीवोंको आत्यन्तिक दुःखको प्राप्त करानेवाले नरक हैं। इन नरकोंमें जन्म लेनेवाले जीव . नारक हैं। जो चारों ओरके परमाणुओंसे शरीर बनता है वह संमूर्च्छ है इस सम्मूछेसे उत्पन्न होनेवाले जीव सम्मूर्छन कहलाते हैं । ये दोनों चारित्रमोहनीयके नपुंसकवेद नोकषाय तथा अशुभ नामकर्मके उदयसे न स्त्री और न पुरुष अर्थात् नपुंसक ही होते हैं। इनमें स्त्री और पुरुष सम्बन्धी स्वल्प सुख भी नहीं है । न देवाः ॥५१॥ १ देवोंमे नपुंसक नहीं होते। वे स्त्री और पुरुषसम्बन्धी अतिशय सुखका उपभोग करते हैं। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001811
Book TitleTattvarthvarttikam Part 1
Original Sutra AuthorBhattalankardev
AuthorMahendramuni
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1944
Total Pages454
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size11 MB
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