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________________ २।४८-४९] हिन्दी-सार आदिके एकत्व विक्रिया होता है पृथक्त्व विक्रिया नहीं । मनुष्योंके भी तप और विद्या आदिके प्रभावसे एकत्व विक्रिया होता है । तैजसमपि ॥४८॥ १ तेजस शरीर भी लब्धिप्रत्यय होता है। यद्यपि आहारकका प्रकरण था परन्तु लब्धिप्रत्ययोंके प्रकरण में लाघवके लिए तैजसका कथन कर दिया है। शुभं विशुद्धमव्याघाति चाहारकं प्रमत्तसंयतस्यैव ॥४६॥ आहारक शरीर शुभ विशुद्ध और अव्याघाती होता है, यह प्रमत्तसंयतके ही होता है। ११-३ जैसे प्राणोंका कारण होनेसे उपचारसे अन्नको भी प्राण कह देते हैं उसी तरह शुभ आहारकयोगका कारण होनेसे यह शरीर शुभ कहा जाता है। विशुद्ध कर्मके उदयसे होनेके कारण यह विशुद्ध है। न तो आहारक शरीर किसीका व्याघात करता है और न किसीसे व्याघातित ही होता है अतः अव्याघाती है। १४ भरत और ऐरावत क्षेत्रमें केवलियोंका अभाव होनेपर महाविदेह क्षेत्रमें केवली भगवान्के पास औदारिक शरीरसे जाना तो शक्य नहीं है और असंयम भी बहुत होगा अतः प्रमत्तसंयत मुनि सूक्ष्म पदार्थक निर्णयके लिए या ऋद्धिका सद्भाव जाननेके लिए या संयम परिपालनके लिए आहारक शरीरकी रचना करता है। इन बातोंके समुनचयके लिए 'च' शब्द दिया गया है। ६५-७ 'प्रमत्त संयतके ही आहारक होता है' इस प्रकार अवधारण करनेके लिए एवकार है न कि 'प्रमत्तसंयतके आहारक ही होता है' इस अनिष्ट अवधारणके लिए। जिस समय मुनि आहारक शरीरकी रचना करता है उस समय वह प्रमत्तसंयत ही हो जाता है। ६८ इन शरीरोंमें परस्पर संज्ञा लक्षण कारण स्वामित्व सामर्थ्य प्रमाण क्षेत्र स्पर्शन काल अन्तर संख्या प्रदेश भाव और अल्पबहुत्व आदिकी दृष्टिसे भेद है । यथा, संज्ञा-औदारिक आदिके अपने-अपने जुदे नाम हैं।। लक्षण-स्थूल शरीर औदारिक है। विविधगुण ऋद्धिवाली विक्रिया करनेवाला शरीर वैक्रियिक है। सूक्ष्मपदार्थविषयक निर्णयके लिए आहारक शरीर होता है। शंखके समान शुभ तैजस होता है। वह दो प्रकारका है-१ निःसरणात्मक २ अनिःसरणात्मक । औदारिक वैक्रियिक और आहारक शरीरमें दीप्ति करनेवाला-रौनक लानेवाला अनिःसरणात्मक तैजस है। निःसरणात्मक तेजस उग्रचारित्रवाले अतिक्रोधी यतिके शरीरसे निकल. कर जिसपर क्रोध है उसे घेरकर ठहरता है और उसे शाककी तरह पका देता है, फिर वापिस होकर यतिके शरीरमें ही समा जाता है। यदि अधिक देर ठहर जाय तो उसे भस्मसात् कर देता है । सभी शरीरोंमें कारणभूत कर्मसमुहको कार्मण शरीर कहते हैं । ___ कारण-औदारिक आदि भिन्न-भिन्न नाम कर्मोंके उदयसे ये शरीर होते हैं। अतः कारणभेद स्पष्ट है। स्वामित्व-औदारिक शरीर तिर्यञ्च और मनुष्योंके होता है । वैक्रियिक शरीर देव नारकी तेजस्काय वायुकाय और पंचेन्द्रिय तिर्यञ्च तथा मनुष्योंमें किसीके होता है। प्रश्न-जीवस्थानके योगभंग प्रकरणमें तिर्यञ्च और मनुष्योंके औदारिक और औदारिक मिश्र Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001811
Book TitleTattvarthvarttikam Part 1
Original Sutra AuthorBhattalankardev
AuthorMahendramuni
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1944
Total Pages454
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size11 MB
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