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________________ ३६८ तरवार्यवार्तिक [२४४-४७ और कार्मण अथवा वैक्रियिक तैजस और कार्मण होंगे। किसीके औदारिक आहारक तेजस और कार्मण ये चार भी हो सकते हैं। वैक्रियिक और आहारक एक साथ नहीं होते अतः पांचकी संभावना नहीं है। क्योंकि आहारक जिस प्रमत्तसंयत मुनिके होता है उसके वैक्रियिक नहीं होता, जिन देव और नारकियोंके वैक्रियिक होता है उनके आहारक नहीं होता। निरुपभोगमन्त्यम् ॥४४॥ अन्तिम कार्मण शरीर निरुपभोग होता है । ६१-३ इन्द्रियोंके द्वारा शब्दादिककी उपलब्धिको उपभोग कहते हैं। यद्यपि कर्मादान निर्जरा और सुखदुःखानुभवन आदि उपभोग कार्मण शरीरमें संभव हैं फिर भी विग्रहगतिमें द्रव्येन्द्रियोंकी रचना नहीं होती, अतः विवक्षित उपभोग कार्मण शरीरमें नहीं पाया जाता। तैजस शरीर चूंकि योगनिमित्त, योग अर्थात् आत्मप्रदेश परिस्पन्दमें भी निमित्त नहीं होता अतः उसकी उपभोग विचारमें विवक्षा नहीं है। अतः योगनिमित्त शरीरोंमें अन्तिम कार्मण शरीर ही निरुपभोग है, शेष सोपभोग हैं । गर्भसम्मूर्छनजमायम् ॥४५॥ जितने गर्भज और सम्मूर्छनजन्य शरीर हैं वे सब औदारिक हैं । औपपादिकं वैक्रियिकम् ॥४६॥ उपपादजन्य यावत् शरीर वैक्रियिक हैं। लब्धिप्रत्ययं च ॥४७॥ वैक्रियिक शरीर ऋद्धिनिमित्तक भी होता है। ११-२ प्रत्यय शब्दके ज्ञान, सत्यता, कारण आदि अनेक अर्थ हैं किन्तु यहाँ कारण अर्थ विवक्षित है। विशेष तपसे जो ऋद्धि प्राप्त होती है वह लब्धि है। लब्धिकारणक भी वैक्रियिक शरीर होता है। ६३ उपपाद तो निश्चित है, पर लब्धि अनिश्चित है, किसीके ही विशेष तप धारण करने पर होती है। ४ विक्रियाका अर्थ विनाश नहीं है, जिससे प्रति समय न्यूनाधिक रूपसे सभी शरीरोंका विनाश होनेसे सबको वैक्रियिक कहा जाय किन्तु नाना आकृतियोंको उत्पन्न करना है । विक्रिया दो प्रकार की है-१ एकत्व विक्रिया, २ पृथक्त्व विक्रिया। अपने शरीरको ही सिंह व्याघ्र हिरण हंस आदि रूपसे बना लेना एकत्व विक्रिया है और शरीरसे भिन्न मकान मण्डप आदि बना देना पृथक्त्व विक्रिया है। भवनवासी व्यन्तर ज्योतिषी और सोलह स्वर्गके देवोंके दोनों प्रकारको विक्रिया होती है । ऊपर वेयक आदि सर्वार्थसिद्धि पर्यन्तके देवोंके प्रशस्त एकत्व विक्रिया ही होती है। छठवें नरक तकके नारकियोंके त्रिशूल चक्र तलवार मुद्गर आदि रूपसे जो विक्रिया होती है वह एकत्वविक्रिया ही है न कि पृथक्त्व विक्रिया । सातवें नरकमें गाय बराबर कीड़े लोहू आदि रूपसे एकत्व विक्रिया ही होती है, आयुधरूपसे एकत्व विक्रिया और पृथक्त्व विक्रिया नहीं होती। तिर्यञ्चोंमें मयूर For Private & Personal Use Only Jain Education International www.jainelibrary.org
SR No.001811
Book TitleTattvarthvarttikam Part 1
Original Sutra AuthorBhattalankardev
AuthorMahendramuni
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1944
Total Pages454
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size11 MB
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