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________________ ३६४ तत्वार्थवार्तिक [२२३३-३४ ७ लाख, अनित्य निगोदके ७ लाख, पृथिवी जल अग्नि और वायु प्रत्येकके सात सात लाख, वनस्पतिके दस लाख, विकलेन्द्रियोंके छह लाख, देव नारकी और पंचेन्द्रियतिर्यञ्च प्रत्येकके चार चार लाख, मनुष्योंके चौदह लाख इस प्रकार कुल ८४ लाख योनिभेद होते हैं। जो कभी भी त्रस पर्यायको प्राप्त न होंगे वे नित्यनिगोद तथा जिनने त्रस पर्याय पाई थी या आगे पायेंगे वे अनित्य निगोद हैं। जन्म विवरण जरायुजाण्डजपोतानां गर्भः॥३३॥ जरायुज अण्डज और पोतका गर्भजन्म होता है । १-३ गर्भाशयमें प्राणीके ऊपर जो मांस और रक्तका जाल होता है वह जरायु है। शुक्र और शोणितसे परिवेष्टित, नखके ऊपरी भागकी तरह कठिन और श्वेत गोलाकार अण्डा होता है । इनमें उत्पन्न जीव क्रमशः जरायुज और अण्डज हैं । जो योनिसे निकलते ही चलने फिरनेकी शक्ति रखते हैं, गर्भाशयमें जिनके ऊपर कोई आवरण नहीं रहता वे पोत हैं। ४-५ कोई 'पोतजाः' ऐसा पाठ रखते हैं । पर यह ठीक नहीं है। क्योंकि पोत तो स्वयं आत्मा ही है, उसमें उत्पन्न होनेवाला कोई दूसरा जीव नहीं है जो पोतज कहा जाय । आत्मा ही पोत परिणमन करके पोत कहलाता है। ६६-१० चूंकि जरायुजोंमें भाषा अध्ययन आदि असाधारण क्रियाएँ देखी जाती हैं, चक्रवर्ती वासुदेव आदि महाप्रभावशाली जरायुज ही होते हैं तथा मोक्षकी प्राप्ति जरायुजोंको ही होती है अतः पूज्य होनेसे उसका ग्रहण सर्वप्रथम किया है । अण्डजोंमें भी तोता मैना आदि अक्षरोच्चारण आदिमें कुशल होते हैं अतः पोतसे पहिले उनका ग्रहण किया है। ११ यद्यपि पहिले सूत्रमें सम्मूर्छनोंका नाम प्रथम लिया है अतः यहां भी उसीका वर्णन होना चाहिये था फिर भी आगे 'शेषाणां सम्मूर्छनम्' इस सूत्रकी लघुता के लिए उसका यहाँ प्रथम ग्रहण नहीं किया है; क्योंकि यदि, समूर्च्छनका प्रथम कथन करते तो 'एकद्वित्रिचतुरिन्द्रियाणां पञ्चेन्द्रियाणां तिरश्चां मनुष्याणां च केषाञ्चित् सम्मूर्च्छनम्' इतना बड़ा सूत्र बनाना पड़ता। १२ जरायुज आदिके गर्भजन्म सिद्ध ही था फिर भी 'गर्भ' शब्दके ग्रहण करनेसे 'जरायुज अण्डज और पोतोंके ही गर्भ होता है' यह नियम ज्ञापित होता है। आगेके सूत्र में 'शेष' पद देनेसे ज्ञात होता है कि जन्मका ही नियम किया गया है जन्मवालोंका नहीं। यदि इन सूत्रोंसे जन्मवालोंका नियम होता तो आगे 'शेष' ग्रहण करना निरर्थक ही हो जाता। देवनारकाणामुपपादः ॥३४॥ देव और नारकियोंके उपपादजन्म होता है। ३१ जिस समयसे देवगतिका उदय हो तभीसे उसका जन्म स्वीकार करना इसलिए ठीक नहीं है कि विग्रहगतिमें भी देवगतिका उदय हो जाता है पर शरीरयोग्य पुद्गलोंका ग्रहण न होनेसे उस समय जन्म नहीं माना जाता। इसलिए उपपादको जन्म कहना ठीक है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001811
Book TitleTattvarthvarttikam Part 1
Original Sutra AuthorBhattalankardev
AuthorMahendramuni
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1944
Total Pages454
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size11 MB
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