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________________ २।३२] हिन्दी-सार ३६३ ११ यद्यपि जन्मके प्रकार अनेक हैं फिर भी प्रकारगत सामान्यकी अपेक्षासे 'जन्म' शब्दको एकवचन ही रखा है । जन्मकी आधारभूत योनियोंके भेदसचित्तशीतसंवृताः सेतरा मिश्राश्चैकशस्तयोनयः ॥३२॥ सचित्त शीत संवृत अचित्त उष्ण विवृत और सचित्ताचित्त शीतोष्ण और संवृतविवृत ये नव योनियां हैं। १-५ आत्माके चैतन्य परिणमनको चित्त कहते हैं । चित्त सहित सचित्त कहलाता है। शीत अर्थात् ठंडा स्पर्श और ठंडा पदार्थ । संवृत अर्थात् ढका हुआ । इतर अर्थात् अचित्त उष्ण और विवत। मिश्र अर्थात् उभयात्मक । ६६-८ च शब्द प्रत्येकके समुच्चयके लिए है, अन्यथा 'सचित्त शीत संवृत जब अचित्त उष्ण और विवृतसे मित्र हों तत्र योनियां होंगीं' यह अर्थ हो जाता। च शब्दसे 'प्रत्येक भी योनियाँ है तथा मिश्र भी' यह स्पष्ट बोध हो जाता है । यद्यपि कहीं 'च' शब्द न देने पर भी समुच्चयका बोध देखा जाता है और समुच्चय और विशेषण दोनों अर्थों में इच्छानुसार समुच्चय अर्थ भी लिया जा सकता था फिर भी सूत्रमें नहीं कही गई चौरासी लाख योनियोंके संग्रहके लिए 'च' शब्दकी सार्थकता है। ९ ‘एकशः' पदसे ज्ञात होता है कि मिश्र योनियोंमें क्रममिश्रता होनी चाहिये । अर्थात् सचित-अचिंत्त, शीत-उष्ण, संवृत-विवृत आदि, न कि सचित्त-शीत आदि । १० 'तत्' पदसे ज्ञात होता है कि ये योनियां पूर्वोक्त सम्मूर्च्छन आदि जन्मों की हैं। ११-१२ योनि शब्दको केवल स्त्रीलिंग समझकर द्वन्द्वसमासमें सचित्तादि शब्दोंके पुल्लिग प्रयोगमें आपत्ति नहीं करनी चाहिये; क्योंकि योनि शब्द उभयलिंग है। यहां पुल्लिग समझना चाहिये। १३-योनि आधार है तथा जन्म आधेय है । सचित्तादि योनियोंमें ही सम्म - नादि जन्मोंके द्वारा आत्मा शरीर ग्रहण करता है । यही योनि और जन्ममें भेद है । 6 १४-१७ चेतनात्मक होनेसे सचित्तका प्रथम ग्रहण किया है, उसके बाद तृप्तिकारक होनेसे शीतका तथा गुप्त होनेसे संवृतका अन्तमें ग्रहण किया है। जीवोंके कर्मविपाक नाना प्रकारके हैं अतः योनियां भी अनेक प्रकार की मानी गई हैं। ६१८-२६ देव और नारकोंके अचित्त योनि हैं; क्योकि इनके उपपाद प्रदेशके पुद्गल अचेतन हैं। माताके उदरमें अचेतन वीर्य और रजसे चेतन आत्माका मिश्रण होनेसे गर्भजोंके मिश्र योनि हैं। सम्मूर्छन जीवोंमें साधारण शरीरवालोंके सचित्त योनि है । शेषमें किसीके अचित्त योनि तथा किसीके मिश्रयोनि होती है। देव और नारकियोंके शीत और उष्ण योनि, तेजस्कायिकोंके उष्णयोनि तथा शेष जीवोंके शीत उष्ण और मिश्रयोनि होती हैं । देव नारक और एकेन्द्रिय जीवोंके संवृतयोनि, विकलेन्द्रियोंके विवृत योनि और गर्भज जीवोंके मिश्रयोनि होती है। 6 २७ इन योनियोंके चौरासी लाख भेदोंका 'च' शब्दसे समुच्चय किया गया है। सर्वज्ञने इनका साक्षात्कार किया है और अल्पज्ञानियोंको ये आगमगम्य हैं। नित्यनिगोदके Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001811
Book TitleTattvarthvarttikam Part 1
Original Sutra AuthorBhattalankardev
AuthorMahendramuni
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1944
Total Pages454
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size11 MB
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