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________________ ३६२ तत्त्वार्थवार्तिक [२॥३०-३१ अनाहारकताका नियम एकं द्वौ त्रीन्वाऽनाहारकः ॥३०॥ जीव एक दो या तीन समय तक अनाहारक रहता है । ६१ पूर्व सूत्रसे 'समय' शब्दकी अनुवृत्ति कर लेनी चाहिए। यद्यपि पूर्वसूत्रमें समय शब्द समासान्तर्गत होनेसे गौण है फिर भी सामर्थ्यसे उसीका सम्बन्ध हो जाता है । ६२-३ वा शब्द विकल्पार्थक है । विकल्पका अर्थ है यथेच्छ सम्बन्ध करना। . अत्यन्त संयोग विवक्षित होनेके कारण सप्तमी न होकर यहां द्वितीया विभक्ति की गई है। ४ औदारिक वैक्रियिक और आहारक इन तीन शरीरोंके तथा छह पर्याप्तियों के योग्य पुद्गलोंका ग्रहण करना आहार है। तैजस और कार्मण शरीरके पुद्गल तो जब तक मोक्ष नहीं होता तब तक प्रतिक्षण आते ही रहते हैं । ५-६ ऋद्धिप्राप्त ऋषियोंके ही आहारक शरीर होता है अतः विग्रह गतिमें इसकी संभावना नहीं है। विग्रहगतिमें बाकी कवलाहार लेपाहार आदि कोई भी आहार नहीं होते ; क्योंकि इन आहारोंमें समय लगता है अतः समयका व्यवधान पड़ जायगा। जैसे तपाया हुआ बाण लक्ष्य देशपर पहुंचनेके पहिले भी बरसातके जलको ग्रहण करता जाता है उसी तरह पूर्वदेहको छोड़नेके दुःखसे सन्तप्त यह प्राणी आठ प्रकारके कर्मपुद्गलोंसे निर्मित कार्मण शरीरके कारण जाते समय ही नोकर्मपुद्गलोंको भी ग्रहण करके आहारक हो जाता है । वक्रगतिमें तीन समय तक अनाहारक रहता है। एक समयवाली इषुगतिमें नोकर्म पुद्गलोंको ग्रहण करता हुआ ही जाता है अतः अनाहारक नहीं होता। दो समय और एक मोड़ा वाली पाणिमुक्ता गतिमें प्रथम समयमें अनाहारक रहता है। तीन समय और दो मोड़ावाली लांगलिका गतिमें दो समय तक अनाहारक रहता है। चार समय और तीन मोडावाली गोमूत्रिका गतिमें तीन समय तक अनाहारक रहकर चौथे समयमें आहारक हो जाता है। जन्मके प्रकार सम्मूर्च्छनगर्भोपपादा जन्म ॥३१॥ सम्मळुन गर्भ और उपपाद ये तीन जन्म हैं। 6 १ तीनों लोकोंमें ऊपर नीचे तिरछे सभी दिशाओंसे पुद्गलपरमाणुओंका इकट्ठा होकर शरीर बनना सम्मूर्छन है। ६२-३ स्त्रीके गर्भाशयमें शुक्र और शोणितके मिश्रणको गर्भ कहते हैं। अथवा, माताके द्वारा गृहीत आहारसे जहां रस ग्रहण किया जाय वह गर्भ है। ४ देव और नारकियोंके उत्पत्तिस्थानोंको उपपाद कहते हैं। इन नियत स्थानोंके पुद्गलोंसे उपपादजन्म होता है । १५-१० सम्मूर्च्छन शरीर अत्यन्त स्थूल होता है, अल्पकालजीवी होता है तथा उसके कारण मांसादि और कार्य शरीर, दोनों ही प्रत्यक्ष हैं अतः उसका ग्रहण प्रथम किया है। इसके बाद गर्भका; क्योंकि यह अधिक कालमें परिपूर्ण होता है । अति दीर्घजीवी होनेके कारण उपपादका सबके अन्तमें ग्रहण किया है । परिणामाधीन विविध कर्मोके विपाकसे इन विभिन्न रूपोंमें प्राणियोंकी उत्पत्ति होती है । कर्मके अनुसार ही जन्म होता है । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001811
Book TitleTattvarthvarttikam Part 1
Original Sutra AuthorBhattalankardev
AuthorMahendramuni
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1944
Total Pages454
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size11 MB
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