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________________ २।२७-२९] हिन्दी-सार ३६१ अविग्रहा जीवस्य ॥२७॥ मुक्तजीवके अविग्रहा अर्थात् बिना मोड़ लिए हुए गति होती है । ६१ आगेके सूत्रमें 'संसारी' का ग्रहण किया है, अत: यह सूत्र मुक्त के लिए है यह निश्चित हो जाता है। यद्यपि 'अनुश्रेणि गतिः' सूत्रसे मुक्तकी अविग्रह गति सिद्ध हो जाती है फिर भी जब वह सूत्र जीव-पुद्गल दोनोंके लिए साधारण हो गया और वह भी इसी सूत्रके बलपर तव इस सूत्रकी आवश्यकता बनी ही रहती है । ___ विग्रहवती च संसारिणः प्राक् चतुर्थ्यः ॥२८॥ संसारी जीवोंके चार समयसे पहिले विग्रहवाली अर्थात् मोड़वाली भी गति होती है। १ चार समयसे पहिले ही मोड़ेवाली गति होती है, क्योंकि संसार में ऐसा कोई कोनेवाला टेढा-मेढा क्षेत्र ही नहीं है जिसमें तीन मोड़ासे अधिक मोड़ा लेना पड़े। जैसे षष्टिक चावल साठ दिनमें नियमसे पक जाते हैं उसी तरह विग्रह गति भी तीन समयमें समाप्त हो जाती है। ६२ च शब्दसे उपपाद क्षेत्रके प्रति ऋजुगति अविग्रहा तथा कुटिल गति सविग्रहा इस प्रकार दोनोंका समुच्चय हो जाता है । ३-४ प्राक् शब्दकी जगह 'आचतुर्व्यः' कहनेसे लाघव तो होता पर इससे चौथे समयके ग्रहणका अनिष्ट प्रसंग प्राप्त हो जाता है । यद्यपि 'आङ' का मर्यादा अर्थ भी होता है पर अभिविधि और मर्यादामेंसे विवक्षित अर्थके जाननेके लिए व्याख्यान आदिका गौरव होता अतः स्पष्टताके लिए 'प्राक्' शब्द ही दे दिया है । ये गतियां चार हैं-इषुगति पाणिमुक्ता लांगलिका और गोमूत्रिका। इषुगति बिना विग्रहके होती है और शेष गतियां मोड़ेवाली हैं । बाणकी तरह सीधी सरल गति मुक्तजीवोंके तथा किन्हीं संसारियोंके एक समयवाली बिना मोड़की होती है। हाथसे छोड़े गये जलादिकी तरह पाणिमुक्ता गति एक विग्रहवाली और दो समयवाली होती हैं। हलकी तरह दो मोड़वाली लांगलिकां गति तीन समयमें निष्पन्न होती है। गोमूत्रकी तरह तीन विग्रहवाली गोमूत्रिका गति चार समयमें परिपूर्ण होती है। एकसमयाऽविग्रहा ॥२६॥ १ बिना मोड़ेकी ऋजुगति एक समयवाली ही होती है । लोकके अग्रभाग तक जीव पुद्गलोंकी गति एक ही समयमें हो जाती है । ६२-३ आत्माको सर्वगत अत एव निष्क्रिय मानकर गतिका निषेध करना उचित नहीं है; क्योंकि जैसे बाह्य आभ्यन्तर कारणोंसे पत्थर सक्रिय होता है उसी तरह आत्मा भी कर्मसम्बन्धसे शरीरपरिमाणवाला होकर शरीरकृत क्रियाओंके अनुसार स्वयं सक्रिय होता है । शरीरके अभावमें दीपशिखाकी तरह स्वाभाविक क्रियामें परिपूर्ण रहता है । यदि आत्माको सर्वगत अतएव क्रियाशून्य माना जाता है तो संसार और बन्ध आदि नहीं हो सकेंगे। मोक्ष तो क्रियासे ही संभव है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001811
Book TitleTattvarthvarttikam Part 1
Original Sutra AuthorBhattalankardev
AuthorMahendramuni
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1944
Total Pages454
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size11 MB
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