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________________ ३६० तत्वार्थवार्तिक [२२२४-२६ संज्ञिनः समनस्काः ॥२४॥ मनसहित जीव संज्ञी होते हैं। ११-५ प्रश्न-यह हित है और यह अहित इस प्रकारके गुण-दोष-विचारको संज्ञा कहते हैं । मनका भी यही कार्य है अतः समनस्क विशेषण व्यर्थ है। उत्तर-संज्ञा शब्दके अनेक अर्थ हैं, जो समनस्क जीवोंके सिवाय अन्यत्र भी पाये जाते हैं। यदि संज्ञाका अर्थ 'नाम' लिया जाता है तो वह संसारके सभी प्राणियोंमें पाया जाता है ऐसी दशामें किसीकी व्यावृत्ति नहीं की जा सकेगी। यदि संज्ञाका अर्थ 'ज्ञान' लेते हैं तब भी वही बात है, सभी । प्राणी ज्ञानात्मक होते हैं । यदि संज्ञाका अर्थ 'आहार भय मैथुन और परिग्रह संज्ञा' लिया जाता है; तब भी कोई अन्तर नहीं पड़ता; क्योंकि सभी प्राणियोंके यथायोग्य ये संज्ञाएँ पाई जाती हैं। अत: मनरहित प्राणियोंकी व्यावृत्तिके लिए समनस्क विशेषणकी सार्थकता है । इस तरह गर्भस्थ अण्डस्थ मूच्छित सुषुप्त आदि अवस्थाओंमें हिताहित विचार न होने पर भी मनकी सत्ता होनेसे संज्ञित्व बन जाता है। नवीन शरीरग्रहणकी प्रक्रिया विग्रहगतौ कर्मयोगः ॥२५॥ विग्रहगतिमें कर्मनिमित्तक योग अर्थात् परिस्पन्द होता है। ६१-४ औदारिकादि नाम कर्मके उदयसे उन शरीरोंके योग्य पुद्गलोंका ग्रहण विग्रह कहलाता है। विरुद्ध ग्रह अर्थात् कर्म पुद्गलोंका ग्रहण होनेपर भी जहां नोकर्म पुद्गलोंका ग्रहण नहीं होता वह विग्रह । विग्रहके लिए गति विग्रहगति कही जाती है । इस विग्रहगतिमें सभी औदारिकादि शरीरोंको उत्पन्न करनेवाले कार्मण शरीरके निमित्तसे ही आत्मप्रदेश परिस्पन्द होता है। इसलिए समनस्क और अमनस्क सभी प्राणियोंकी गतिमें कोई व्यवधान नहीं पड़ता। अनुश्रेणि गतिः ॥२६॥ विग्रहगति आकाश प्रदेशोंकी श्रेणिके अनुसार होती है। १-५ लोकके मध्यसे लेकर ऊपर नीचे और तिरछे आकाशके प्रदेश क्रमश: श्रेणिबद्ध हैं। इसके अनुकूल ही सभी गतिवाले जीव पुद्गलोंकी गति होती है। गतिका प्रकरण होनेपर भी इस सूत्रमें जो पुनः ‘गति' शब्दका ग्रहण किया है और आगेके सूत्रमें जो 'जीव' शब्दका विशेषरूपसे ग्रहण किया है उससे ज्ञात होता है कि इस सूत्रसे सभी गतिवाले जीव पुद्गलोंकी गतिका विधान किया गया है। विग्रहगतिमें जीवका बैठना सोना या ठहरना आदि तो होता नहीं है जिससे इनकी निवृत्तिके लिए 'गति' शब्दकी सार्थकता मानी जाय । १६ अनुश्रेणि गतिको देश और काल नियत है। इसके सिवाय लोकमें चक्र आदिकी विविध प्रकार विश्रेणि गति भी होती है। जीवोंके मरणकालमें नवीन पर्याय धारण करनेके समय तथा मुक्तजीवोंके ऊर्ध्वगमनके समय अनुश्रेणि ही गति होती है । ऊर्ध्वलोकसे नीचे अधोलोकसे ऊपर या तिर्यक् लोकसे ऊपर-नीचे जो गति होगी वह अनुश्रेणि होगी। पुद्गलोंकी जो लोकान्त तक गति होती है, वह नियमसे अनुश्रेणि ही होती है । अन्य गतियोंका कोई नियम नहीं है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001811
Book TitleTattvarthvarttikam Part 1
Original Sutra AuthorBhattalankardev
AuthorMahendramuni
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1944
Total Pages454
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size11 MB
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