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________________ २२२१-२३] हिन्दी सार ३५९ है तो घटके दिखनेपर घटकी तरह स्पर्शके छूनेपर 'घड़ेको छुआ' यह व्यवहार नहीं होना चाहिए। इन्द्रियभेदसे स्पर्शादिमें सर्वथा भेद मानना भी उचित नहीं है। क्योंकि संख्या परिमाण पृथक्त्व संयोग विभाग परत्वापरत्व आदि रूपी द्रव्यमें समवाय सम्बन्धसे रहनेके कारण चाक्षुष होनेपर भी परस्पर भिन्न हैं। लक्षण भेदसे भी नानात्व नहीं होता; क्योंकि द्रव्य गुण कर्ममें सत्तासम्बन्धित्व रूप एक लक्षणके पाए जानेपर भी भेद देखा जाता है। स्पर्शादि भिन्न उपलब्ध नहीं होते अतः सर्वथा एकत्व मानना उचित नहीं है ; क्योंकि सांख्यके मतमें सत्त्व रज और तम पृथक् उपलब्ध नहीं होते फिर भी भेद माना जाता है। इनमें व्यक्त और अव्यक्त आदिके रूपसे अनेकधा भेद पाया जाता है। अतः द्रव्य दृष्टिसे कथञ्चित् एकत्व और पर्यायष्टिसे कथञ्चित् भेद मानना ही उचित.है । मनका वर्णन श्रुतमनिन्द्रियस्य ॥२१॥ श्रुतज्ञानका विषयभूत पदार्थ मनका विषय है। श्रुतज्ञानावरणका क्षयोपशम होनेपर आत्माकी श्रुतज्ञानके विषयभूत पदार्थमें मन के निमित्तसे प्रवृत्ति होती है। अथवा, श्रुतज्ञान मनसे उत्पन्न होता है। यह पदार्थ इन्द्रियव्यापारसे परे है। १ श्रोत्रेन्द्रियजन्य ज्ञानको या श्रोत्रेन्द्रियके विषयको श्रुत नहीं कह सकते; क्योंकि वह इन्द्रियजन्य होनेसे मतिज्ञान ही है। मतिज्ञानके बाद जो विचार केवल मनजन्य होता है वह श्रुत है। इन्द्रियोंके स्वामी वनस्पत्यन्तानामेकम् ॥२२॥ पृथिव्यादि वनस्पति पर्यन्त स्थावरोंके एक स्पर्शन इन्द्रिय ही होती है। ६१-३ अन्त शब्द पर्यन्तवाची है। यदि अन्त शब्दका अर्थ समीपता लिया जायगां तो वनस्पतिके समीप अर्थात् वायु और त्रसोंका बोध होगा । अन्त शब्द सम्बन्धिशब्द है अतः वनस्पति-पर्यन्त कहनेसे 'पृथिवीको आदि लेकर' यह ज्ञान हो ही जाता है । ६४ एक शब्द प्रथमताका वाचक है, अतः जिस किसी इन्द्रियका ज्ञान न कराके प्रथम स्पर्शनेन्द्रियका बोधक है। वीर्यान्तराय और स्पर्शनेन्द्रियावरणका क्षयोपशम, शरीर अङ्गोपाङ्ग नाम और एकेन्द्रिय जातिका उदय होनेपर एक स्पर्शनेन्द्रिय होती है। कृमिपिपीलिकाभ्रमरमनुष्यादीनामेकैकवृद्धानि ॥२३॥ कृमि पिपीलिका भमर और मनुष्यादिके क्रमशः एक एक इन्द्रियां बढ़ती गई हैं। ६१-५ 'एकैकम्' यह वीप्सार्थक है। सभी इन्द्रियोंकी अपेक्षा 'वृद्धानि' में बहुवचन दिया है । 'स्पर्शन' का अनुवर्तन करके क्रमशः एक एक इन्द्रियकी वृद्धि विवक्षित है। स्पर्शन और रसना कृमि आदिके, प्राण अधिक पिपीलिका आदिके, चक्षु अधिक भूमर आदिके और श्रोत्र अधिक मनुष्यके आदिके होती हैं। आदि शब्द प्रकार और व्यवस्थाके अर्थ में है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001811
Book TitleTattvarthvarttikam Part 1
Original Sutra AuthorBhattalankardev
AuthorMahendramuni
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1944
Total Pages454
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size11 MB
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