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२४३५-३६ ]
हिन्दी-सार
शेषाणां सम्मूर्छनम् ॥३५॥ शेषके सम्मूर्च्छन जन्म होता है ।
१-२ देव और नारकियोंके ही उपपाद और शेषके ही सम्मूर्च्छन होता है। पहिले गर्भ और उपपाद जन्मका तो नियम हुआ है पर जरायुज आदिका नहीं, उनके सम्मूर्छन जन्मका भी प्रसंग प्राप्त होता है अतः उसके वारण करने के लिए यह सूत्र बनाया गया है। यदि 'जरायुज अण्डज पोतोंके गर्भ ही होता है और देव नारकियोंके उपपाद ही होता है ; तो अर्थात् ही शेषके सम्मूर्च्छन ही होता है, यह फलित हो जाता है। ऐसी दशामें न केवल शेषग्रहण किन्तु यह सूत्र ही निरर्थक हो जाता है । परन्तु जन्म और जन्मवाले दोनों के अवधारणका प्रसंग उपस्थित होनेपर 'जन्मका ही अवधारण करना चाहिए' यह व्यवस्था इस सूत्रसे ही फलित होती है अतः सूत्रकी सार्थकता है।
शरीरोंका वर्णन
औदारिकवैक्रियिकाहारकतैजसकार्मणानि शरीराणि ॥३६॥ औदारिक वैक्रियिक आहारक तैजस और कार्मण ये पांच शरीर हैं।
१-३ जो शीर्ण हों वे शरीर हैं। यद्यपि घटादि पंदार्थ भी विशरणशील ह परन्तु वे उनमें नामकर्मोदय निमित्त नहीं हैं, अतः उन्हें शरीर नहीं कह सकते। जिस प्रकार 'गच्छतीति गौः' यह विग्रह रूढ शब्दोंमें भी किया जाता है उसी तरह 'शरीर' शब्दका भी विग्रह समझना चाहिए। शरीरत्व नामकी जातिके समवायसे शरीर कहना तो उचित नहीं है क्योंकि स्वयं शरीरस्वभाव न मानने पर अमुक जगह ही शरीरत्वका सम्बन्ध हो अमुक जगह न हो इत्यादि नियम नहीं बन सकता।
४-९ उदार अर्थात् स्थूल प्रयोजनवाला या स्थूल जो शरीर वह औदारिक है। अणिमा आदि आठ प्रकारके ऐश्वर्यके कारण अनेक प्रकारके छोटे-बड़े आकार करने रूप विक्रिया करना जिसका प्रयोजन है वह वैक्रियिक है। प्रमत्तसंयत मुनिके द्वारासूक्ष्मतत्त्वज्ञान
और असंयमके परिहारके लिए जिसकी रचना की जाती है वह आहारक है । जो दीप्तिका कारण होता है वह तैजस है । कर्मोंका कार्य या कर्मों के समूहको कार्मण कहते हैं।
६१०-१३ जैसे मिट्टीके पिण्डसे उत्पन्न होनेवाले घट घटी सकोरा आदिमें संज्ञा लक्षण आकार आदिकी दृष्टिसे भेद है उसी तरह यद्यपि औदारिकादि शरीर कर्मकृत हैं, फिर भी उनमें संज्ञा लक्षण आकार और निमित्त आदिकी दृष्टिसे परस्पर भिन्नता है। औदारिकादि शरीर प्रतिनियत नामकर्मके उदयसे होते हैं । कार्मण शरीरसे ही औदारिकादि शरीर उत्पन्न होते हैं अतः कारण कार्यकी अपेक्षा भी कार्मण और औदारिकादि भिन्न हैं। जैसे गीले गुड़पर धूलि आकर जम जाती है उसी तरह कार्मण शरीर पर ही औदारिकादि शरीरोंके योग्य परमाणु, जिन्हें विस्रसोपचय कहते हैं, आकर जमा होते हैं। इस दृष्टि से भी कार्मण और औदारिकादि भिन्न हैं।
१४-१७ जैसे दीपक परप्रकाशी होनेके साथ ही साथ स्वप्रकाशी भी है उसी तरह कार्मण शरीर औदारिकादिका भी निमित्त है और अपने उत्तर कार्मणका भी । अतः निनिमित्त होनेसे उसे असत् नहीं कह सकते। फिर मिथ्यादर्शन आदि कार्मण शरीरके
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