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________________ २२५] हिन्दी-सार ३४१ ६३ उदयप्राप्त सर्वघाति स्पर्धकोंका क्षय होनेपर, अनुदयप्राप्त सर्वघाति स्पर्धकोंका सदवस्थारूप उपशम होनेपर तथा देशघाति स्पर्धकोंके उदय होनेपर क्षायोपशमिक भाव होते हैं। $४ स्पर्धक-उदय प्राप्त कर्मके प्रदेश अभव्योंके अनन्तगुणें तथा सिद्धोंके अनन्तभाग प्रमाण होते हैं। उनमेंसे सर्वजघन्य गुणवाले प्रदेशके अनुभागका बुद्धि के द्वारा उतना सूक्ष्म विभाग किया जाय जिससे आगे विभाजन न हो सकता हो। सर्वजीवराशिके अनन्तगुण प्रमाण ऐसे सर्वजघन्य अविभाग परिच्छेदोंकी राशिको एक वर्ग कहते हैं। इसी तरह सर्वजघन्य अविभाग परिच्छेदोंके, जीवराशिसे अनन्तगुण प्रमाण, राशिरूप वर्ग बनाने चाहिए । इन समगुणवाले समसंख्यक वर्गों के समूहको वर्गणा कहते हैं । पुनः एक अविभाग परिच्छेद अधिक गुणवालोंके सर्वजीवराशिकी अनन्तगुण प्रमाण राशिरूप वर्ग बनाने चाहिए। उन वर्गों के समुदायको वर्गणा बनानी चाहिए। इस तरह एक एक अविभाग परिच्छेद बढ़ाकर वर्ग और वर्गसमूहरूप वर्गणाएँ तब तक बनानी चाहिए जबतक एक अधिक परिच्छेद मिलता जाय । इन क्रमहानि और क्रमवृद्धिवाली वर्गणाओंके समुदायको एक स्पर्धक कहते हैं। इसके बाद दो तीन चार संख्यात और असंख्यात गुण अधिक परिच्छेद नहीं मिलते किन्तु अनन्तगुण अधिकवाले ही मिलते हैं। फिर उनमेंसे पूर्वोक्त क्रमसे समगुणवाले वर्गों के समुदायरूप वर्गणा बनानी चाहिए । इस तरह जहां तक एक एक अधिक परिच्छेदका लाभ हो वहां तककी वर्गणाओंके समूहका दूसरा स्पर्धक बनता है । इसके आगे दो तीन चार संख्यात असंख्यात गुण अधिक परिच्छेद नहीं मिलेंगे किन्तु अनन्तगुण अधिक ही मिलते हैं। इस तरह समगुणवाले वर्गों के समुदायरूप वर्गणाओंके समूहरूप स्पर्धक एक उदयस्थानमें अभव्योंसे अनन्तगुणे तथा सिद्धोंके अनन्तभाग प्रमाण होते हैं। ५ वीर्यान्तराय और मतिश्रुतज्ञानावरणके सर्वघाति स्पर्धकोंका उदयक्षय और आगामीका सदवस्था उपशम होनेपर तथा देशघाति स्पर्धकोंका उदय होनेपर क्षायोपशमिक मतिज्ञान और श्रुतज्ञान होते हैं। देशघाति स्पर्षकोंके अनुभागतारतम्यसे क्षयोपशममें भेद होता है । इसी तरह अवधिज्ञान और मनःपर्ययज्ञान भी क्षायोपशमिक होते हैं। ६ मिथ्यात्वकर्मके उदयसे मत्यज्ञान श्रुताज्ञान और विभंगज्ञान ये तीन अज्ञान अर्थात् मिथ्याज्ञान होते हैं। ६७ चक्षुर्दर्शन अचक्षुर्दर्शन और अवधिदर्शन ये तीन दर्शन अपने अपने आवरणोंके क्षयोपशमसे होते हैं। $८ दान लाभ भोग उपभोग और वीर्य ये पाँच लब्धियाँ दानान्तराय आदिके क्षयोपशमसे होती हैं। अनन्तानुबन्धी चार कषाय मिथ्यात्व और सम्यङमिथ्यात्वके उदयाभावी क्षय और सदवस्थारूप उपशम होनेपर तथा सम्यक्त्व नामक देशघाति प्रकृतिके उदयमें क्षायोपशमिक सम्यक्त्व होता है। यह वेदक भी कहलाता है । अनन्तानुबन्धी अप्रत्याख्यान और प्रत्याख्यान रूप बारह कषायोंके उदयाभावी क्षय और सदवस्थारूप उपशम होनेपर तथा चार संज्वलनोंमें से किसी एक कषाय और नव नोकषायोंका यथासंभव उदय होनेपर क्षायोपशमिक चारित्र होता है। अनन्तानुबन्धी और अप्रत्याख्यानरूप आठ कषायोंका Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001811
Book TitleTattvarthvarttikam Part 1
Original Sutra AuthorBhattalankardev
AuthorMahendramuni
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1944
Total Pages454
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size11 MB
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