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________________ ३४० तस्वार्थवार्तिक [२१५ १ समग्र ज्ञानावरणके क्षयसे केवलज्ञान और दर्शनावरणके क्षयसे केवलदर्शन क्षायिक होते हैं। २ समस्त दानान्तराय कर्मके अत्यन्त क्षयसे अनन्त प्राणियोंको अभय और अहिंसाका उपदेशरूप अनन्त दान क्षायिक दान है। ६३ संपूर्ण लाभान्त रायका अत्यन्त क्षय होनेपर कवलाहार न करनेवाले केवली को शरीरकी स्थितिमें कारणभूत परम शुभ सूक्ष्म दिव्य अनन्त पुद्गलोंका प्रतिसमय शरीर में सम्बन्धित होना क्षायिक लाभ है। अतः 'कवलाहारके बिना कुछ कम पूर्वकोटि वर्ष तक औदारिक शरीरकी स्थिति कैसे रह सकती है ?" यह शंका निराधार हो जाती है। ६४ संपूर्ण भोगान्तरायके नाशसे उत्पन्न होनेवाला सातिशय भोग क्षायिक भोग है। इसीसे पुष्पवृष्टि • गन्धोदकवृष्टि पदकमल रचना सुगन्धित शीत वायु सह्य धूप आदि अतिशय होते हैं। ६५ समस्त उपभोगान्तरायके नाशसे उत्पन्न होनेवाला सातिशय उपभोग क्षायिक उपभोग है। इसीसे सिंहासन छत्र-त्रय चमर अशोकवृक्ष भामण्डल दिव्यध्वनि देवदुन्दुभि आदि होते हैं। १६ समस्त वीर्यान्तरायके अत्यन्त क्षयसे प्रकट होनेवाला अनन्त क्षायिक वीर्य है। ६७ दर्शनमोहके क्षयसे क्षायिक सम्यग्दर्शन और चारित्रमोहके क्षयसे क्षायिक चारित्र होता है। प्रश्न-दानान्तराय आदिके क्षयसे प्रकट होनेवाली दानादिलब्धियोंके अभयदान आदि कार्य सिद्धों में भी होने चाहिए ? - उत्तर-दानादिलब्धियों के कार्यके लिए शरीर नाम और तीर्थङ्कर प्रकृतिके उदयकी भी अपेक्षा है । सिद्धोंमें ये लब्धियां अव्याबाध अनन्तसुख रूपसे रहती हैं। जैसे कि केवल ज्ञानरूपमें अनन्तवीर्य । जैसे पोरोंके पृथक् निर्देशसे अंगुलि सामान्यका कथन हो जाता है उसीतरह सभी क्षायिक भावोंमें व्यापक सिद्धत्वका भी कथन उन विशेष क्षायिकभावोंके कयनसे हो ही गया है, उसके पृथक् कथनकी आवश्यकता नहीं हैं। क्षायोपशमिक भावज्ञानाज्ञानदर्शनलब्धयश्चतुस्त्रित्रिपञ्चभेदाः सम्यक्त्वचारित्रसंयमा __ संयमाश्च ॥५॥ चार ज्ञान, तीन अज्ञान, तीन दर्शन, पांच लब्धियां, सम्यक्त्व, चारित्र और संयमासंयम ये १८ क्षायोपशमिक भाव हैं। १-२ चतुः त्रि आदि शब्दोंका द्वन्द्व समास करके पीछे भेदशब्दसे अन्यपदार्थप्रधान बहुव्रीहि समास करना चाहिए। यहां सूत्रमें 'त्रि' शब्द दो बार आया है अतः द्वन्द्वका अपवाद करके एकशेष नहीं किया गया है; क्योंकि एक त्रि संख्यासे अर्थबोध नहीं होता, यहां अन्यपदार्थ प्रधान है और त्रि शब्दको पृथक् कहनेका विशेष प्रयोजन भी है । 'चार प्रकारका ज्ञान, तीन अज्ञान' आदि अनुक्रमसे सम्बन्ध ज्ञापन करानेके लिए यहां 'यथाक्रम' शब्दका अनुवर्तन 'द्विनवाष्टा' सूत्रसे कर लेना चाहिए। सपना Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001811
Book TitleTattvarthvarttikam Part 1
Original Sutra AuthorBhattalankardev
AuthorMahendramuni
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1944
Total Pages454
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size11 MB
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