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________________ ३४२ तस्वार्थवार्तिक [२२६ उदयक्षय और सदवस्था उपशम, प्रत्याख्यान कषायका उदय संज्वलनके देशघाति स्पर्धक और यथासंभव नोकषायोंका उदय होनेपर विरत-अविरत परिणाम उत्पन्न करनेवाला क्षायोपशमिक संयमासंयम होता है । ६९ क्षायोपशमिक संज्ञित्व भाव नोइन्द्रियावरणके क्षयोपशमकी अपेक्षा रखनेके कारण मतिज्ञानमें अन्तर्भूत हो जाता है । सम्यङमिथ्यात्व यद्यपि दूध पानीकी तरह उभयात्मक है फिर भी सम्यक्त्वपना उसमें विद्यमान होनेसे सम्यक्त्वमें अन्तर्भूत हो जाता है । योगका वीर्यलब्धिमें अन्तर्भाव हो जाता है । अथवा, च शब्दसे इन भावोंका संग्रह हो जाता है। पंचेन्द्रियत्व समान होनेपर भी जिसके संज्ञिजाति नामकर्मके उदयके साथ ही नोइन्द्रियावरणका क्षयोपशम होता है वही संज्ञी होता है, अन्य नहीं। औदयिक भावगतिकषायलिङ्गमिथ्यादर्शनाज्ञानासंयतासिद्धलेश्याश्चतुश्चतुस्त्र्ये कैकैकैकषड्भेदाः॥६॥ चार गति, चार कषाय, तीन लिङ्ग, मिथ्यादर्शन, अज्ञान, असंयम, असिद्धत्व और छह लेश्याएँ ये इक्कीस औदयिक भाव हैं। १ जिस कर्मके उदयसे आत्मा नारक आदि भावोंको प्राप्त हो वह गति है । नरक, तिर्यञ्च, मनुष्य और देव ये चार गतियाँ होती हैं। ६२ कषाय नामक चारित्रमोहके उदयसे होनेवाली क्रोधादिरूप कलुषता कषाय कहलाती है। यह आत्माके स्वाभाविक रूपको कष् देती है अर्थात् उसकी हिंसा करती है । क्रोध मान माया और लोभ ये चार कषाएँ होती हैं। ३ द्रव्य और भावके भेदसे लिंग दो प्रकार का है। चूंकि आत्मभावोंका प्रकरण है, अतः नामकर्मके उदयसे होनेवाले द्रव्यलिंगकी यहाँ विवक्षा नहीं है। स्त्रीवेदके उदयसे होनेवाली पुरुषाभिलाषा स्त्रीवेद है, पुरुषवेदके उदयसे होनेवाली स्त्री-अभिलाषा पुरुषवेद और नपुंसकवेदके उदयसे होनेवाली उभयाभिलाषा नपुसकवेद है। ४ दर्शनमोहके उदयसे तत्त्वार्थमें अरुचि या अश्रद्धान मिथ्यात्व कहलाता है । ६५ जिस प्रकार प्रकाशमान सूर्यका तेज सघन मेघों द्वारा तिरोहित हो जाता है उसी तरह ज्ञानावरणके उदयसे ज्ञानस्वरूप आत्माके ज्ञान गुणकी अनभिव्यक्ति अज्ञान है। एकेन्द्रियके रसन घ्राण चक्षु और श्रोत्रेन्द्रियावरणके सर्वघाति स्पर्धकोंका उदय होनेसे रसादिका अज्ञान रहता है। तोता मैना आदिके सिवाय पंचेन्द्रिय तिर्यञ्चोंमें तथा कुछ मनुष्योंमें अक्षर श्रुतावरणके सर्वघाति स्पर्धकोंका उदय होनेसे अक्षर श्रुतज्ञान नहीं हो पाता । नोइन्द्रियावरणके उदयसे होनेवाला असंज्ञित्व अज्ञानमें ही अन्तर्भूत है । इसी तरह अवधि ज्ञानावरणादिके उदयसे होनेवाले यावत् अज्ञान औदयिक हैं । ६६ चारित्रमोहके उदयसे होनेवाली हिंसादि और इन्द्रिय विषयोंमें प्रवृत्ति असंयम है। ७ अनादि कर्मबद्ध आत्माके सामान्यतः सभी कर्मों के उदयसे असिद्ध पर्याय होती है । दसवें गुणस्थान तक आठों कर्मों के उदयसे, ग्यारहवें और बारहवें गुणस्थानमें Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001811
Book TitleTattvarthvarttikam Part 1
Original Sutra AuthorBhattalankardev
AuthorMahendramuni
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1944
Total Pages454
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size11 MB
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