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________________ तस्वार्थवार्तिक [ ११३३ कालव्यभिचार - जिसने विश्वको देख लिया ऐसा विश्वदृश्वा (विश्वं दृष्टवान् ) पुत्र उत्पन्न होगा । उपसर्गके अनुसार धातुओंमें परस्मैपद और आत्मनेपदका प्रयोग उपग्रह व्यभिचार है । जैसे संतिष्ठते प्रतिष्ठते विरमति उपरमति आदिमें । इत्यादि व्यभिचार अयुक्त हैं क्योंकि अन्य अर्थका अन्य अर्थसे कोई सम्बन्ध नहीं है अन्यथा घट पट हो जायगा और पट मकान । अतः यथालिंग यथावचन और यथासाधन प्रयोग करना चाहिए । ३३४ यह नय लोक और व्याकरणशास्त्र के विरोधकी कोई चिन्ता नहीं करता । यहाँ तो नयका विषय बताया जा रहा है मित्रोंकी खुशामद नहीं की जा रही है । ११० अनेक अर्थोंको छोड़कर किसी एक अर्थमें मुख्यतासे रूढ होने को समभिरूढ नय कहते हैं । जैसे सूक्ष्मक्रियाप्रतिपाति शुक्लध्यान अर्थ व्यञ्जन और योगकी संक्रान्ति न होनेसे मात्र एक सूक्ष्म काययोगमें परिनिष्ठित हो जाता है उसी तरह 'गौ' आदि शब्द वाणी पृथ्वी आदि ग्यारह अर्थों में प्रयुक्त होनेपर भी सबको छोड़कर मात्र एक सास्नादिवाली 'गाय' में रूढ़ हो जाता है । अथवा, शब्दका प्रयोग अर्थज्ञानके लिए किया जाता है । जब एक शब्द अर्थबोध हो जाता है तब उसीमें अन्य पर्यायवाची शब्दों का प्रयोग निरर्थक हं । शब्दभेदसे अर्थभेद होना ही चाहिए, जैसे इन्दन क्रियासे इन्द्र, शासन या शक्तिके कारण शक्र और पूर्दारणसे पुरन्दर । अथवा जो जहां अधिरूढ़ है वहीं उसका मुख्य रूपसे प्रयोग करना समभिरूढ़ है । जैसे किसीने पूछा कि आप कहां हैं ? तो समभिरू नय उत्तर देगा-'अपने स्वरूपमें' क्योंकि अन्य पदार्थकी अन्यत्र वृत्ति नहीं हो सकती अन्यथा ज्ञानादि और रूपादिकी भी आकाशमें वृत्ति होनी चाहिए । ११-१२ जिस समय जो पर्याय या क्रिया हो उस समय तद्वाची शब्दके प्रयोगको ही एवंभूत नय स्वीकार करता है । जिस समय इन्दन अर्थात् परमैश्वर्यका अनुभव करे उसी समय इन्द्र कहा जाना चाहिए, नाम स्थापना द्रव्यनिक्षेपकी दशा में नहीं । इसी तरह प्रत्येक शब्दका प्रयोग उस क्रियामें परिणत अवस्थामें ही उचित है । अथवा, यह नय जिस पर्यायमें है उसी रूपसे निश्चय करता है । गो जिस समय चलती है उसी समय गौ है न तो बेठनेकी अवस्थामें और न सोनेकी अवस्था में । पूर्व और उत्तर अवस्थाओं में वह पर्याय नहीं रहती अतः उस शब्दका प्रयोग ठीक नहीं है । अथवा, इन्द्र या अग्नि ज्ञानसे परिणत आत्मा ही इन्द्र या अग्नि है ऐसा निश्चय एवम्भूत नय करता है। ज्ञान या आत्मा में अग्निव्यपदेश करनेके कारण दाहकत्व आदिका अतिप्रसङ्ग आत्मामें नहीं देना चाहिए; क्योंकि नाम स्थापना आदिमें पदार्थके जो जो धर्म वाच्य होते हैं वे ही उनमें रहेंगे, नोआगमभाव अग्निमें ही दाहकत्व आदि धर्म होते हैं उनका प्रसङ्ग आगमभाव अग्निमें देना उचित नहीं है । ये नय उत्तरोत्तर सूक्ष्म विषयक तथा पूर्व पूर्व हेतुक हैं अतः इनका निर्दिष्ट क्रमके अनुसार निर्देश किया है। ये नय पूर्व पूर्व में विरुद्ध और महा विषयवाले हैं। और उत्तरोत्तर अनुकूल और अल्प विषयवाले हैं । अनन्तशक्तिक द्रव्यकी हर एक शक्तिकी अपेक्षा इनके बहुत भेद होते हैं । गौण मुख्य विवक्षासे परस्पर सापेक्ष होकर ये नय सम्यग्दर्शनके कारण होते हैं और पुरुषार्थ क्रियामें समर्थ होते हैं । जैसे तन्तु परस्पर सापेक्ष होकर पट अवस्थाको प्राप्त करके ही शीत निवारण कर सकते हैं और स्वतन्त्र दशामें न तो पट ही कहे जाते हैं और न शीतसे रक्षा ही कर सकते हैं । जिस Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001811
Book TitleTattvarthvarttikam Part 1
Original Sutra AuthorBhattalankardev
AuthorMahendramuni
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1944
Total Pages454
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size11 MB
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