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________________ १६३३] हिन्दी-सार ३३३ कृष्णताका वर्णन 'कृष्णः' शब्दसे हो रहा है या कृष्णपरिणमनवाले द्रव्यका ही ? इस नयकी दृष्टिमें पलालका दाह नहीं हो सकता ; क्योंकि अग्नि सुलगाना, धौंकना और जलांना आदि असंख्य समयकी क्रियाएँ वर्तमान क्षणमें नहीं हो सकती। जिस समय दाह है उस समय पलाल नहीं और जिस समय पलाल है उस समय दाह नहीं, तब पलालदाह कैसा ? 'जो पलाल है वह जलता है' यह भी नहीं कह सकते; क्योंकि बहुत पलाल बिना जला भी बाकी है। यह समाधान भी उचित नहीं है कि-'समुदायवाची शब्दोंकी अवयवमें भी प्रवृत्ति देखी जाती है अतः अंशदाहसे .सर्वदाह ले लेंगे' क्योंकि कुछ पलाल तो बिना जला शेष है ही। यदि संपूर्णदाह नहीं हो सकता; तो • 'पलालदाह' यह प्रयोग ही नहीं करना चाहिए। यदि संपूर्णदाह नहीं हो सकता अतः एकदेशदाहसे पलालका दाह माना जायगा उसमें, 'अदाह' नहीं होगा तो आपके वचन भी संपूर्ण रूपसे परपक्षके दुषक नहीं हो सकते, अतः एकदेशके दृषक होनेसे उन्हें सर्वथा दूषक ही माना जायगा किसी भी तरह 'अदूषक' नहीं होंगे और इस तरह उनमें स्वपक्षअदूषकत्व अर्थात् साधकत्व भी नहीं होगा। यदि अनेक अवयव होनेसे कुछ अवयवोंमें दाह होनेसे सर्वत्र दाह माना जाता है तो कुछ अवयवोंमें अदाह होनेसे सर्वत्र अदाह क्यों नहीं माना जायगा ? यदि सर्वत्र दाह है तो अदाह सर्वत्र क्यों नहीं? इसी तरह इस नयकी दृष्टिसे पान-भोजन आदि कोई व्यवहार नहीं बन सकते । इस नयकी दृष्टिसे सफेद चीज काली नहीं बन सकती; क्योंकि दोनोंका समय भिन्न भिन्न है। वर्तमानके साथ अतीतका कोई सम्बन्ध नहीं है। ___यह नय व्यवहारलोपकी कोई चिंता नहीं करता। यहाँ तो उसका विषय बताया गया है। व्यवहार तो पूर्वोक्त व्यवहार आदि नयोंसे ही सध जाता है। ८-९ जिस व्यक्ति ने संकेतग्रहण किया है उसे अर्थबोध करानेवाला शब्द होता है । शब्दनय लिंग संख्या साधनादि सम्बन्धी व्यभिचारकी निवृत्ति करता है अर्थात् उसकी दृष्टिसे ये व्यभिचार हो ही नहीं सकते क्योंकि अन्य अर्थका अन्यके साथ कोई सम्बन्ध नहीं है । वह व्याकरणशास्त्रके इन व्यभिचारोंको न्याय्य नहीं मानता। लिंगव्यभिचार-स्त्रीलिंगके साथ पुल्लिगका प्रयोग करना, जैसे 'तारका स्वातिः'। पुल्लिगके साथ स्त्रीलिंगका प्रयोग, जैसे अवगमो विद्या'। स्त्रीलिंगके साथ नपुसकका प्रयोग, जैसे 'वीणा आतोद्यम्'। नपुंसकलिंगके साथ स्त्रीलिंगका प्रयोग, जैसे-'आयुधं शक्तिः '। संख्याव्यभिचार-एकवचनके स्थानमें द्विवचनका प्रयोग, जैसे 'नक्षत्रं पुनर्वसू । एकवचनके स्थानमें वहुवचन, जैसे 'नक्षत्रं शतभिषजः' । द्विवचनके स्थानमें एकवचन, जैसे 'गौदी प्रामः'। द्विवचनके स्थानमें बहुवचन, जैसे 'पुनर्वसू पञ्चतारकाः' । बहुवचनके स्थानमें एकवचन जैसे 'आम्राः वनम्' । बहुवचनके स्थानमें द्विवचन, जैसे 'देवमनुष्याः उभी राशी'। साधनव्यभिचार-परिहासमें मध्यम पुरुषके स्थानमें उत्तम पुरुष और उत्तम पुरुषके स्थानमें मध्यम पुरुषका प्रयोग करना, जैसे-'एहि, मन्ये रथेन यास्यसि, नहि यास्यसि यातस्ते पिता' इसका प्रकृतरूप यह है 'त्वम् एहि, त्वं मन्यसे यत् अहं रथेन यास्यामि, त्वं नहि यास्यसि ते पिता अग्रे यातः' । यहाँ मन्यसेके स्थानमें मन्येका तथा यास्यामिके स्थानमें यास्यसि का प्रयोग हुआ है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001811
Book TitleTattvarthvarttikam Part 1
Original Sutra AuthorBhattalankardev
AuthorMahendramuni
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1944
Total Pages454
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size11 MB
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