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३३२ तत्त्वार्थवार्तिक
[१॥३३ देव नारक आदि और घट पट आदि भेद लोकव्यवहारके लिए किए जाते हैं। कषायरस'को किसी वैद्यने दवारूपमें बताया तो जब तक किसी खास 'आंवला' आदिका निर्देश न किया जाय तब तक समस्त संसारका कषाय रस तो समाट' भी इकट्ठा नहीं कर सकता । यह व्यवहार नय वहाँ तक भेद करता जायगा जिससे आगे कोई भेद नहीं हो सकता होगा।
६७ जिस प्रकार सरल सूत डाला जाता है उसी तरह ऋजुसूत्र नय एक समयवर्ती वर्तमान पर्यायको विषय करता है । अतीत और अनागत चूंकि विनष्ट और अनुत्पन्न हैं अतः उनसे व्यवहार नहीं हो सकता । इसका विषय एक क्षणवर्ती वर्तमान पर्याय है । 'कषायो भैषज्यम्' में वर्तमानकालीन वह कषाय भैषज हो सकती है जिसमें रसका परिपाक हुआ है न कि प्राथमिक अल्परसवाला कच्चा कषाय ।
पच्यमान इस मयका विषय है। पच्यमानमें भी कुछ अंश तो वर्तमानमें पकता है तथा कुछ अंश पक चुकते हैं । अतः पच्यमान भातको अंशतः पक्व कहने में भी कोई विरोध नहीं है; क्योंकि पाकके प्रथम समयमें कुछ अंश यदि पक जाता है तो मान लेना चाहिए कि पच्यमान पदार्थ अंशतः पक्व हो चुका है । यदि नहीं पकता; तो द्वितीयादि क्षणोंमें भी पकनेकी गुञ्जाइश नहीं हो सकती । अतः पाकका ही अभाव हो जायगा । उस दशामें स्यात् पच्यमान ही कह सकते हैं ; क्योंकि जितने विशद रंधे हुए भातमें 'पक्व' का अभिप्राय है उतना पाक अभी नहीं हुआ है । स्यात् पक्व भी कह सकते हैं ; क्योंकि किसी भोजनार्थीको उतना ही पाक इष्ट हो सकता है। इसी तरह क्रियमाणमें भी अंशतः कृत व्यवहार, भुज्यमानमें भी अंशतः भुक्त व्यवहार, बध्यमानमें भी अंशतः बद्ध व्यवहार आदि कर लेना चाहिए।
जिस समय प्रस्थसे धान्य आदि मापा जाता हो उसी समय उसे प्रस्थ कह सकते हैं। वर्तमानमें अतीत और अनागतसे धान्यका माप तो होता ही नहीं है। इस नयकी दृष्टिसे कुम्भकार व्यवहार नहीं हो सकता; क्योंकि शिविक आदि पर्यायोंके बनाने तक तो उसे कुम्भकार कह ही नहीं सकते और घट पर्यायके समय अपने अवयवों से स्वयं ही घड़ा बन रहा है। जिस समय जो बैठा है वह उस समय यह नहीं कह सकता कि 'अभी ही आ रहा हूँ'; क्योंकि उस समय आगमन क्रिया नहीं हो रही है। जितने आकाश प्रदेशोंमें वह ठहरा है उतने ही प्रदेशोंमें उसका निवास है अथवा स्वात्मा में; अतः ग्रामनिवास गृहनिवास आदि व्यवहार नहीं हो सकते । इस नयकी दृष्टिमें 'कौआ काला' नहीं है क्योंकि काला रंग काला है और कौआ कौआ है। यदि काला रंग कौआ रूप हो जाय तो संसारके भौंरा आदि सभी काले पदार्थ कौआ बन जायंगे। इसी तरह यदि कौआ काले रंग स्वरूप हो जाय तो शुक्ल काकका अभाव ही हो जायगा। फिर कौआका रक्त मांस पित्त हड्डी चमड़ा आदि मिलकर पंचरंगी वस्तु होती है, अतः उसे केवल काला ही कैसे कह सकते हैं ? कृष्ण और काकमें सामानाधिकरण्य भी नहीं बन सकता; क्योंकि विभिन्न शक्तिवाली पर्याएं ही अपना अस्तित्व रखती हैं द्रव्य नहीं। यदि कृष्णगुणकी प्रधानतासे काकको काला कहा जाता है तो कम्बल आदिमें अतिप्रसंग हो जायगा क्योंकि उनमें भी काला रंग विशेष है, अतः उन्हें भी काक कहना चाहिए । अधिक कसैले और स्वल्प मधुर मधुको फिर मधु नहीं कहना चाहिए । परोक्षमें कहनेपर संशय भी हो सकता है कि क्या कृष्णगुणकी प्रधानतासे काककी
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