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________________ ११३३] हिन्दी-सार ३३१ नगमन यमें कोई वस्तुभूत पदार्थ सामने नहीं है यहाँ तो तदर्थ किए जानेवाले संकल्पमात्रमें ही वह व्यवहार किया जा रहा है । ४ प्रश्न-भाविसंज्ञामें तो यह आशा है कि आगे उपकार आदि हो सकते हैं, पर नैगमनयमें तो केवल कल्पना ही कल्पना है, अतः यह संव्यवहारके अनुपयुक्त है ? उत्तर-नयोंके विषयके प्रकरण में यह आवश्यक नहीं है कि उपकार या उपयोगिताका विचार किया जाय । यहाँ तो केवल उनका विषय बताना है। फिर संकल्पके अनुसार निष्पन्न वस्तुसे आगे उपकारादिकी भी संभावना भी है ही। ६५ अनुगताकार बुद्धि और अनुगत शब्द प्रयोगका विषयभूत सादृश्य या स्वरूप जाति है। चेतनकी जाति चेतनत्व और अचेतनकी जाति अचेतनत्व है। अतः अपने अविरोधी सामान्यके द्वारा उन उन पदार्थों का संग्रह करनेवाला संग्रहनय है। जैसे 'सत' कहनेसे सत्ता सम्बन्धके योग्य द्रव्यगुण कर्म आदि सभी सद्व्यक्तियोंका ग्रहण हो जाता है अथवा द्रव्य कहनेसे द्रव्य व्यक्तियोंका। इस तरह यह संग्रह पर और अपरके भेदसे अनेक प्रकार का होता है। ___ सत्रा नामक भिन्न पदार्थके सम्बन्धसे 'सत्' यह प्रत्यय मानना उचित नहीं है। क्योंकि यदि सत्ता सम्बन्धके पहिले द्रव्यादिमें 'सत्' प्रत्यय होता था, तो फिर अन्य सत्ताका सम्बन्ध मानना ही निरर्थक है जैसे कि प्रकाशितका प्रकाशन करना । इस तरह दो सत्ताएं एक पदार्थमें माननी होंगी-एक भीतरी और दूसरी बाहिरी । ऐसी दशामें "सत् सत् प्रत्यय सर्वत्र समान होनेसे तथा विशेष लिङ्ग न होनेसे एक ही सामान्य पदार्थ होता है" इस सिद्धान्तका विरोध हो जायगा । यदि सत्ता सम्बन्धसे पहिले द्रव्यादि 'असत्' हैं; तो उनमें खरविषाणकी तरह सत्ता सम्बन्ध नहीं हो सकेगा। समवाय भी सत्ताका नियामक स्वतः नहीं हो सकता। किंच, स्वयं सत्तामें 'सत्' इस ज्ञानको यदि अन्य सत्तामूलक मानते हैं तो अनवस्था दूषण आता है। तथा 'द्रव्य गुण कर्ममें ही सत्ता रहती है' इस सिद्धान्तका विरोध भी होता है। यदि पदार्थकी शक्तिविचित्रतासे द्रव्यादिमें होनेवाले 'सत्' प्रत्ययको अन्य सामान्यहेतुक और सत्तामें स्वतः ही सत् प्रत्यय माना जाता है, तो यह व्यवस्था स्वेच्छाकृत होगी प्रमाणसिद्ध नहीं, और इस तरह संसर्गसे प्रत्यय माननेके सिद्धान्तका भी परित्याग हो जाता है। किंच, द्रव्यादिकमें सत्ताकी वृत्ति यदि यह उसकी है' इस रूपसे मानी जाती है तो मतुप् प्रत्यय होकर 'सत्तावान् द्रव्य' ऐसा प्रयोग होगा जैसे गोमान् यवमान् आदि । अतः 'सद्व्यम्' इस प्रयोगमें भावार्थक और मत्वर्थक दोनों प्रत्ययोंकी निवृत्ति करनी पड़ेगी । यदि यह वही है' इस प्रकार अभेदवृत्ति मानी जाती है तो 'यष्टिः पुरुषः' की तरह 'सत्ता द्रव्यम्' यह प्रयोग होगा न कि 'सद्रव्यम्' यह । इस पक्षमें भावार्थक तल् प्रत्ययकी निवृत्ति माननी पड़ेगी। संसारमें कोई भी एक पदार्थ अनेकमें सम्बन्धसे रहनेवाला प्रसिद्ध भी नहीं जिसे दृष्टान्त बनाकर सत्ताको एक होकर अनेक सम्बधिनी बनाया जाय । नीली आदि द्रव्य तो उन उन कपड़ोंमें जुदे जुदे हैं। ६ संग्रह नयके द्वारा संगृहीत पदार्थोंमें विधिपूर्वक विभाजन करना व्यवहारनय है। जैसे सर्वसंग्रहनयने 'सत्' ऐसा सामान्य ग्रहण किया था पर इससे तो व्यवहार चल नहीं सकता था अतः भेद किया जाता है कि-जो सत् है वह द्रव्य है या गुण ? द्रव्य भी जीव है या अजीव ? जीव और अजीव सामान्यसे भी व्यवहार नहीं चलता था, अतः उसके भी Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001811
Book TitleTattvarthvarttikam Part 1
Original Sutra AuthorBhattalankardev
AuthorMahendramuni
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1944
Total Pages454
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size11 MB
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