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________________ ३२४ तत्त्वार्थवार्तिक [१।२४ ६७ ऋजुमनस्कृतार्थज्ञ ऋजुवाक्कृतार्थज्ञ और ऋजुकायकृतार्थज्ञ इस प्रकार ऋजु मति तीन प्रकारका है । जैसे किसीने किसी समय सरल मनसे किसी पदार्थका स्पष्ट विचार किया, सष्ट वाणीसे कोई विचार व्यक्त किया और शरीरसे इसी प्रकारकी स्पष्ट क्रिया की, कालान्तरमें उसे भूल गया, फिर यदि ऋजुमतिमनःपर्ययज्ञानीसे पूछा जाय कि-'इसने अमुक समयमें क्या सोचा था, क्या कहा था या क्या किया था ?' या न भी पूछा जाय तो भी वह स्पष्ट रूपसे सभी बातोंको प्रत्यक्ष जानकर बता देगा। महाबन्ध शास्त्रमें बताया है कि 'मनसा मन: परिच्छिद्य परेषां संज्ञादीन् विजानाति' अर्थात् मनसे-आत्मासे दूसरेके मनको जानकर उसकी संज्ञा चिन्ता जीवित मरण दुःख लाभालाभको जान लेता है । जैसे मंच पर बैठे हुए लोगोंको उपचारसे मंच कहते हैं उसी तरह मनमें विचारे गये चेतन अचेतन अर्थों को भी मन कहते हैं । यह स्पष्ट और सरल मनवाले लोगोंकी बातको जानता है, कुठिल मनवालोंकी बातको नहीं। कालसे जघन्यरूपसे अपने या अन्य जीवोंके दो तीन भव और उत्कृष्ट रूपसे सात आठ भवोंको गति आगति अर्थात् जिस भवको छोड़ा और जिसे ग्रहण किया उनकी दो गिनती करके जानता है । क्षेत्रसे जघन्य गव्यूति पृथक्त्वके भीतर और उत्कृष्ट योजनपृथक्त्वके भीतर जानता है। ८ विपुलमति ऋजुके साथ ही साथ कुटिल मन वचन काय सम्बन्धी प्रवृत्तियोंको भी जानता है अतः छह प्रकारका हो जाता है। अर्थात् यह अपने या परके व्यक्त मनसे या अव्यक्त मनसे चिन्तित या अचिन्तित या अर्धचिन्तित सभी प्रकारसे चिन्ता जीवित मरणसुख दुःख लाभ अलाभ आदिको जानता है। विपुलमति कालसे जघन्यरूपसे सात आठ भव तथा उत्कृष्टरूपसे गत्यागतिकी दृष्टिसे असंख्यात भवोंको जानता है। क्षेत्र जघन्यरूपसे योजनपृथक्त्व है और उत्कृष्ट मानुषोत्तर पर्वतके भीतर है, बाहिर नहीं । दोनों मनःपर्यय ज्ञानोंकी परस्पर विशेषता विशुद्धथप्रतिपाताभ्यां तद्विशेषः ॥२४॥ ज्ञानावरणके क्षयोपशमसे होनेवाली निर्मलताको विशुद्धि कहते हैं । संयम शिखरसे गिरनेको प्रतिपात कहते हैं । ग्यारहवें गुणस्थानवर्ती उपशान्तकषायका प्रतिपात होता है बारहवें क्षीणकषायीका नहीं। इन दो दृष्टियोंसे ऋजुमति और विपुलमतिमें विशेषता है अर्थात् विपुलमति विशुद्धतर और अप्रतिपाती होता है। ११-२ यद्यपि पहिले सूत्रसे ही विशेषता ज्ञात हो जाती थी फिर भी अन्य रूपसे विशेषता दिखाने के लिए यह सूत्र बनाया है। यदि विशुद्धि और अप्रतिपात मनःपर्ययज्ञान के भेद होते तो समुच्चयार्थक 'च' शब्दका ग्रहण करना उचित था पर ये भेद नहीं हैं। ये तो उनकी परस्पर विशेषता बतानेवाले प्रकार हैं। सर्वावधिके विषयभूत कार्मणद्रव्यका अनन्तवाँ भाग ऋजुमतिका ज्ञेय होता है, उसका भी अनन्तवाँ भाग सूक्ष्म विपुलमतिका । अतः ऋजुमतिकी अपेक्षा विपुलमतिं द्रव्य क्षेत्र काल और भाव प्रत्येक दृष्टिसे विशुद्धतर है। विपुलमति अप्रतिपाती होने के कारण ऋजुमतिसे विशिष्ट है क्योंकि विपुलमतिके स्वामी प्रवर्धमान चारित्रवाले होते हैं जब कि ऋजुमतिके स्वामी हीयमान चारित्रवाले। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001811
Book TitleTattvarthvarttikam Part 1
Original Sutra AuthorBhattalankardev
AuthorMahendramuni
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1944
Total Pages454
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size11 MB
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