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________________ ११२३] हिन्दी-सार ३२३ सविधि-असंख्यात लोकसे गुणित उत्कृष्ट परमावधिका क्षेत्र सर्वावधिका क्षेत्र है। काल द्रव्य और भाव पहिलेकी तरह। यह सर्वावधि न तो वर्धमान होता है न हीयमान, न अनवस्थित और न प्रतिपाती। केवलज्ञान होने तक अवस्थित है और अप्रतिपाती है । पर्यायान्तरको नहीं जाता इसलिए अननुगामी है। क्षेत्रान्तरको जाता है अतः अनुगामी है। परमावधिका देशावधिमें अन्तर्भाव करके देशावधि और सर्वावधि ये दो भेद भी अवधिज्ञानके होते हैं। . ऊपर कही गई वृद्धियोंमें जब कालवृद्धि होती है तब चारोंकी वृद्धि निश्चित है पर क्षेत्रवृद्धि होनेपर कालवृद्धि भाज्य है अर्थात् हो भी और न भी हो। भाववृद्धि होनेपर द्रव्यवृद्धि नियत है पर क्षेत्र और कालवृद्धि भाज्य है। यह अवधिज्ञान श्रीवृक्ष स्वस्तिक नन्द्यावर्त आदि शरीरचिह्नोंमेंसे किसी एकसे प्रकट होनेपर एकक्षेत्र और अनेकसे प्रकट होनेपर अनेकक्षेत्र कहा जाता है। इन चिहनोंकी अपेक्षा रखने के कारण इसे पराधीनअतएव परोक्ष नहीं कह सकते; क्योंकि इन्द्रियोंको ही 'पर' कहा गया है. जैसा कि गीतामें भी कहा है-"इन्द्रियां पर हैं, इन्द्रियोंसे भी परे मन है, मनसे परे बुद्धि और बुद्धिसे भी परे आत्मा है।" अतः इन्द्रियोंकी अपेक्षा न होनेसे परोक्ष नहीं कह सकते। मनःपर्ययज्ञानका वर्णन ऋजुविपुलमती मनःपर्ययः ॥२३॥ मनःपर्यय ऋजुमति और विपुलमतिके भेदसे दो प्रकारका है । ऋजु अर्थात् सरल और विपुल अर्थात् कुटिल । परकीय मनोगत मन वचन काय सम्बन्धी पदार्थोंको जाननेके कारण मनःपर्यय दो प्रकारका हो जाता है। १-६ वीर्यान्तराय और मनःपर्ययज्ञानावरणका क्षयोपशम होनेपर तथा तदनुकूल अङ्ग उपाङ्गोंका निर्माण होनेपर अपने और दूसरेके मनकी अपेक्षासे होनेवाला ज्ञान मनःपर्यय कहलाता है। अपने मनकी अपेक्षा तो इसलिए होती है कि वहांके आत्मप्रदेशोंमें मनःपर्ययज्ञानावरणका क्षयोपशम होता है। जैसे चक्षु में अवधिज्ञानावरणका क्षयोपशम होनेपर चक्षु की अपेक्षा होने मात्रसे अवधिज्ञानको मतिज्ञान नहीं कहते उसी तरह मनःपर्यय भी मतिज्ञान नहीं है क्योंकि वह इन्द्रिय और मनसे उत्पन्न नहीं होता। परके मनमें स्थित विचारोंको जानता है अतः आकाशमें चन्द्रको देखनेके लिए जैसे आकाश साधारण-सा निमित्त है वह चन्द्रज्ञानका उत्पादक नहीं है उसी तरह परका मन साधारणसा आधार है वह मनःपर्ययज्ञानका उत्पादक नहीं है। इसलिए मनःपर्यय मतिज्ञान नहीं हो सकता। इसी तरह धूमसे स्वसम्बन्धी अग्निके ज्ञानकी तरह परकीय मनःसम्बन्धी विचारोंको जाननेके कारण मनःपर्यय ज्ञानको अनुमान नहीं कह सकते; क्योंकि अनुमान या तो इन्द्रियोंसे हेतुको देखकर या परोपदेशसे हेतुको जानकर ही उत्पन्न होता है परन्तु मनःपर्ययमें न तो इन्द्रियोंकी अपेक्षा होती है और न परोपदेश की ही। फिर अनुमान परोक्ष ज्ञान है जब कि मनःपर्यय प्रत्यक्ष । इसमें 'इन्द्रिय मनकी अपेक्षा न करके जो अव्यभिचारी और साकार ग्रहण होता है वह प्रत्यक्ष है' यह प्रत्यक्षका लक्षण पाया जाता है । जैसा कि सूत्रमें बताया है मनःपर्यय दो प्रकारका है । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001811
Book TitleTattvarthvarttikam Part 1
Original Sutra AuthorBhattalankardev
AuthorMahendramuni
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1944
Total Pages454
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size11 MB
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