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________________ १।२५-२६ ] हिन्दी-सार ३२५ अवधि और मनःपर्ययकी परस्पर विशेषता विशुद्धिक्षेत्रस्वामिविषयेभ्योऽवधिमनःपर्यययोः ॥२५॥ विशुद्धि-निर्मलता, क्षेत्र-जहाँके पदार्थोंको जानता है, स्वामी-ज्ञानवाला और विषय अर्थात् ज्ञेय इनसे अवधि और मनःपर्ययमें विशेषता है। १ यद्यपि सर्वावधिज्ञानका अनन्तवाँ भाग मनःपर्ययका विषय होता है अतः अल्प विषय है फिर भी वह उस द्रव्यकी बहुत पर्यायोंको जानता है। जैसे बहुत शास्त्रोंका थोड़ा थोड़ा परिचय रखनेवाले पल्लवग्राही पंडितसे एक शास्त्रके यावत् सूक्ष्म अर्थो को तलस्पर्शी गंभीर व्याख्याओंसे जाननेवाला प्रगाढ़ विद्वान् विशुद्धतर माना जाता है उसी तरह मनःपर्यय भी सूक्ष्मग्राही होकर भी विशुद्धतर है । क्षेत्रकी अपेक्षा विशेषता बताई जा चुकी है। विषय अभी ही आगे बतायेंगे। मनःपर्ययका स्वामी संयमी मनुष्य ही होता है जब कि अवधिज्ञान चारों गतियोंके जीवोंके होता है । आगममें कहा है कि-'मनःपर्यय मनुष्योंके होता है देव नारकी और तिर्य चोंके नहीं। मनुष्योंमें भी गर्भजोंके ही होता है सम्मूर्च्छनोंके नहीं । गर्भजों में भी कर्मभूमिजोंके होता है अकर्मभूमिजोंके नहीं। कर्मभृमिजोंमें पर्याप्तकोंके, पर्याप्तकोंमें सम्यग्दृष्टियोंके, सम्यग्दृष्टियोंमें पूर्णसंयमियोंके, संयमियोंमें छठवेंसे बारहवें गुणस्थानवालोंके ही, उनमें भी जिनका चारित्र प्रवर्धमान है और जिन्हें कोई ऋद्धि प्राप्त है, उनमें भी किसीको ही होता है सबको नहीं। इस तरह विशिष्ट संयमवालों के होनेके कारण मनःपर्यय विशिष्ट है। मति और श्रुतका विषय मतिश्रुतयोर्निबन्धो द्रव्येष्वसर्वपर्यायेषु ॥२६॥ मति और श्रुत द्रव्योंकी कुछ पर्यायोंको विषय करते हैं। ६१-२ ऊपरके सूत्रसे 'विषय' शब्दका सम्बन्ध यहां हो जाता है अतः यहां फिर 'विषय' शब्द देनेकी आवश्यकता नहीं है । यद्यपि पूर्वसूत्रमें विषय शब्द अन्यविभक्तिक है फिर भी 'अर्थवशाद् विभक्तिपरिणामः-अर्थात् अर्थके अनुसार विभक्तिका परिणमन हो जाता है' इस नियमके अनुसार यहां अनुकूल विभक्तिका सम्बन्ध कर लेना चाहिए, जैसे कि-'देवदत्तके बड़े-बड़े मकान हैं उसे बुलाओ' यहां 'देवदत्तके' इस षष्ठी विभक्तिवाले देवदत्तका 'उसे' इस द्वितीया विभक्ति रूप परिणमन अर्थके अनुसार हो गया है। ३-४ 'द्रव्येषु' यह बहुवचनान्त प्रयोग सर्वद्रव्योंके संग्रहके लिए है। अर्थात् मति और श्रुत जानते तो सभी द्रव्योंको हैं पर उनकी कुछ ही पर्यायोंको जानते हैं इसीलिए सूत्रमें 'असर्वपर्यायेषु' यह द्रव्योंका विशेषण दे दिया है । मतिज्ञान चक्षुरादि इन्द्रियोंसे उत्पन्न होता है और रूपादिको विषय करता है अतः स्वभावतः वह रूपी द्रव्योंको जानकर भी उनकी कुछ स्थूल पर्यायोंको ही जानेगा । श्रुत भी प्रायः शब्दनिमित्तक होता है और असंख्यात शब्द अनन्त पदार्थोकी स्थूल पर्यायोंको ही कह सकते हैं सभी पर्यायोंको नहीं। कहा भी है-'शब्दोंके द्वारा प्रज्ञापनीय पदार्थोंसे वचनातीत पदार्थ अनन्तगुने हैं अर्थात् अनन्तवें भाग पदार्थ प्रज्ञापनीय होते हैं और जितने प्रज्ञापनीय पदार्थ हैं उनके अनन्तवें भाग श्रुत निबद्ध होते हैं।' Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001811
Book TitleTattvarthvarttikam Part 1
Original Sutra AuthorBhattalankardev
AuthorMahendramuni
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1944
Total Pages454
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size11 MB
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