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________________ ३१६ तत्त्वार्थवार्तिक [21/20 उपसर्गोको सह कर मुक्ति प्राप्त की । जैसे महावीरके समय नमि मतङ्ग सोमिल रामपुत्र सुदर्शन यमलीक वलीक निष्कम्बल पाल और अम्बष्ठपुत्र ये दश अंतकृत् केवली हुए धे । अथवा इसमें अर्हत् और आचार्यों की विधि तथा सिद्ध होनेवालोंकी अन्तिम विधिका वर्णन है । अनुत्तरोपपादिकदशाङ्गमें- प्रत्येक तीर्थङ्करके समय होनेवाले उन दस दस मुनियों का वर्णन है जिनने दारुण उपसर्गोंको सहकर विजय वैजयन्त जयन्त अपराजित और सर्वार्थसिद्धि इन पांच अनुत्तर विमानोंमें जन्म लिया । महावीरके समय ऋषिदास वान्य सुनक्षत्र कार्तिक नन्दनन्दन शीलभद्र अभय वारिषेण और चिलातपुत्र ये दश मुनि हुए थे । अथवा, इसमें विजय आदि अनुत्तर विमानोंकी आयु विक्रिया क्षेत्र आदिका निरूपण है । प्रश्नव्याकरण में युक्ति और नयोंके द्वारा अनेक आक्षेप विक्षेप रूप प्रश्नों का उत्तर दिया गया है, सभी लौकिक वैदिक अर्थोंका निर्णय किया गया है । विपाकसूत्रमें पुण्य और पापके विपाकका विचार है । बारहवाँ दृष्टिवाद अंग है । इसमें ३६३ कुवादियोंके मतोंका निरूपण पूर्वक खंडन है । कल्कल काणेविद्धि कौशिक हरिस्मश्रु मांछपिक रोमश हारीत मुण्ड आश्वलायन आदि क्रियावादियोंके १८० भेद हैं। मरीचिकुमार कपिल उलूक गार्ग्य व्याघ्रभूति वाद्वलि माठर मौद्गलायन आदि अक्रियावादियोंके ८४ प्रकार हैं। साकल्य वाल्कल कुथुमि सात्यमुत्र नारायण कठ माध्यन्दिन मौद पैप्पलाद बादरायण अम्बष्ठि कृदौविकायन वसु जैमिनि आदि अज्ञानवादियोंके ६७ भेद है । वशिष्ठ पाराशर जतुकण वाल्मीकि रोमहर्षणि सत्यदत्त व्यास एलापुत्र औपमन्यव इन्द्रदत्त अयस्थुण आदि वैनयिकों के ३२ भेद हैं । इस प्रकार कुल ३६३ भेद होते हैं । दृष्टिवादके पाँच भेद हैं- परिकर्म सूत्र प्रथमानुयोग पूर्वयत और चूलिका । पूर्वगतके उत्पादपूर्व आदि चौदह भेद हैं । उत्पादपूर्व में जीवपुद्गलादिका जहाँ जब जैसा उत्पाद होता है उस सबका वर्णन है । अग्रायणी पूर्वमें क्रियावाद आदिकी प्रक्रिया और स्वसमयका विषय विवेचित है । वीर्यप्रवादमें छद्मस्थ और केवलीकी शक्ति सुरेन्द्र असुरेन्द्र आदिकी ऋद्धियां नरेन्द्र चक्रवर्ती बलदेव आदिकी सामर्थ्य द्रव्योंके लक्षण आदिका निरूपण है । अस्तिनास्ति प्रवादमें - पांचों अस्तिकायोंका और नयोंका अस्तिनास्ति आदि अनेक पर्यायों द्वारा विवेचन है । ज्ञानप्रवादमें पांचों ज्ञानों और इन्द्रियोंका विभाग आदि निरूपित है । सत्यप्रवाद पूर्व में वाग्गुप्ति, वचन संस्कारके कारण, वचन प्रयोग, बारह प्रकारकी भाषाएँ दस प्रकारके सत्य, वक्ताके प्रकार आदिका विस्तारसे विवेचन है । वचन संस्कार के सिर कंठ आदि आठ स्थान हैं । शुभ और अशुभके भेदसे वाक् प्रयोग दो प्रकारका है । अभ्याख्यान कलह आदि रूपसे भाषा बारह प्रकार की है। हिंसादिसे विरक्त मुनि या Araria हिंसादिका दोष लगाना अभ्याख्यान है । कलह लड़ाई कराना । पीठ पीछे दोष दिखाना शुन्य है । चारों पुरुषार्थों से सम्बन्ध रखनेवाला प्रलाप असम्बद्ध भाषा है । शब्दादि विषयोंमें या अमुक देश नगर आदिमें रति उत्पन्न करनेवाली रतिवाक् है । इन्हीं में अरति उत्पन्न करनेवाली अरतिवाक् है । जिसे सुनकर परिग्रहके अर्जन रक्षण आदिमें आसक्ति उत्पन्न हो वह उपधिवाक् है । जिससे व्यापारमें ठगनेको प्रोत्साहन मिले बहु निकृतिवाक् है । जिसे सुनकर तपोनिधि या गुणी जीवोके प्रति अविनयकी प्रेरणा Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001811
Book TitleTattvarthvarttikam Part 1
Original Sutra AuthorBhattalankardev
AuthorMahendramuni
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1944
Total Pages454
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size11 MB
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