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________________ १।२०] ३१५ हिन्दी-सार क्योंकि इनका कोई आदिप्रणेता ज्ञात नहीं है। प्रत्यक्ष आदि प्रमाण अनित्य हैं पर इससे उनकी प्रमाणतामें कोई कसर नहीं आती। ६८ प्रश्न-प्रथम सम्यक्त्वकी उत्पत्ति होनेपर एक साथ मत्यज्ञान और श्रुताज्ञानकी निवत्ति होकर मति और श्रत उत्पन्न होते हैं अतः श्रतको मतिपूर्वक नहीं कहना चाहिए ? उत्तर-मति और श्रुतमें 'सम्यक् व्यपदेश युगपत् होता है न कि उत्पत्ति । दोनोंकी उत्पत्ति तो अपने अपने कारणोंसे क्रमशः ही होती है। ९ चूंकि सभी प्राणियोंके अपने अपने श्रुतज्ञानावरणके क्षयोपशमके अनुसार श्रुतकी उत्पत्ति होती है अतः मतिपूर्वक होनेपर भी सभीके श्रुतज्ञानोंमें विशेषता बनी रहती है । कारणभेदसे कार्यभेदका नियम सर्वसिद्ध है। १० प्रश्न-घट शब्दको सुनकर प्रथम घट अर्थका श्रुतज्ञान हुआ उस श्रुतसे जलधारणादि कार्योंका जो द्वितीय श्रुतज्ञान उत्पन्न होता है उसे श्रुतपूर्वक श्रुत होनेसे 'मतिपूर्वक' नहीं कह सकते, अतः लक्षण अव्याप्त हो जाता है। इसी तरह धूम अर्थका ज्ञान प्रथम श्रुत हुआ, उससे उत्पन्न होनेवाले अविनाभावी अग्निके ज्ञानमें श्रुतपूर्वक श्रुतत्व होनेसे ‘मतिपूर्वक' लक्षण अव्याप्त हो जाता है। उत्तर-प्रथम श्रुतज्ञानमें मतिजन्य होनेसे 'भतिज्ञानत्व'का उपचार कर लिया जाता है और इस तरह द्वितीय श्रुतमें भी 'मतिपूर्वकत्व' सिद्ध हो जाता है । अथवा, पूर्वशब्द व्यवहित पूर्वको भी कहता है । जैसे 'मथुरासे पटना पूर्वमें है' यहां अनेक नगरोंसे व्यवहित भी पटना पूर्व कहा जाता है उसी तरह साक्षात् या परम्परया मतिपूर्वक ज्ञान श्रुत कहे जाते हैं। ११ भेद शब्दका अन्वय द्वि आदिसे कर लेना चाहिए । अर्थात् दो भेद, अनेक भेद और बारह भेद। १२ श्रुतज्ञानके मूल दो भेद हैं-एक अंगप्रविष्ट और दूसरा अङ्गबाह्य । अङ्गप्रविष्ट आचाराङ्ग आदिके भेदसे वारह प्रकारका है। भगवान् महावीररूपी हिमाचलसे निकली हुई वाग्गंगाके अर्थरूप जलसे जिमका अन्तःकरण अत्यन्त निर्मल है, उन बुद्धि ऋद्धिके धनी गणधरों द्वारा ग्रन्थरूपमें रचे गये आचाराङ्ग आदि बारह अङ्ग हैं।। आचाराङ्गमें चर्याका विधान आठ शुद्धि, पांच समिति, तीन गुप्ति आदि रूपसे वणित है। सूत्रकृताङ्गमें-ज्ञानविनय, क्या कल्प्य है क्या अकल्प्य, छेदोपस्थापना आदि न्यवहारधर्मकी क्रियाओंका निरूपण है। स्थानाङमें एक एक दो दो आदिके रूपसे अर्थोका वर्णन है। समवायाङमें सब पदार्थों की समानता रूपसे समवायका विचार किया गर जैसे धर्म अधर्म लोकाकाश और एक जीवके तुल्य असंख्यात प्रदेश होनेसे इनका द्रव्यरूपसे समवाय कहा जाता है । जम्बूद्वीप सर्वार्थसिद्धि अप्रतिष्ठान नरक नन्दीश्वरद्वीपकी बावडी ये सब १ लाख योजन विस्तारवाले होनेसे इनका क्षेत्रकी दष्टिसे समवाय होता है। उत्सर्पिणी और अवसर्पिणी ये दोनों दश कोड़ाकोड़ी सागर प्रमाण होनेसे इनका कालकी दृष्टिसे समवाय है। क्षायिक सम्यक्त्व केवलज्ञान केवलदर्शनयथाख्यातचारित्र ये सब अनन्त विशुद्धिरूपसे भावसमवायवाले हैं। व्याख्याप्रज्ञप्तिमें 'जीव है कि नहीं' आदि साठ हजार प्रश्नोंके उत्तर हैं । ज्ञातृधर्मकथामें अनेक आख्यान और उपाख्यानोंका निरूपण है। उपासकाध्ययनमें श्रावकधर्मका विशेष विवेचन किया गया है। अन्तकृद्दशांगमें प्रत्येक तीर्थकरके समयमें होनेवाले उन दश दश अन्तकृत् केवलियोंका वर्णन है जिनने भयङ्कर Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001811
Book TitleTattvarthvarttikam Part 1
Original Sutra AuthorBhattalankardev
AuthorMahendramuni
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1944
Total Pages454
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size11 MB
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