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________________ ३१४ श्रुतज्ञानका विवेचन- तत्त्वार्थवार्तिक श्रुतं मतिपूर्व द्रयनेकद्वादशभेदम् ||२०|| श्रुतज्ञान मतिज्ञानपूर्वक होता है और उसके अंगबाह्य अंगप्रविष्ट दो भेद हैं । अंगबाह्य के अनेक भेद हैं और अंगप्रविष्टके बारह भेद । Jain Education International [११२० ११ जिस प्रकार कुशल शब्दका व्युत्पत्त्यर्थं कुशको काटनेवाला होता है फिर भी रूढिसे उसका चतुर अर्थ लिया जाता है उसी तरह श्रुतका व्युत्पत्त्यर्थं 'सुना हुआ' होनेपर भी उसका श्रुतज्ञान रूप ज्ञानविशेष अर्थ लिया जाता है । १२ पूर्व अर्थात् कारण, कार्यको पोषण या उसे पूर्ण करने की वजहसे कारण पूर्व कहा जाता है । १३-५ प्रश्न - जैसे मिट्टी के पिण्डसे बना हुआ घड़ा मिट्टी रूप होता है उसी तरह मतिपूर्वक श्रुत भी मतिरूप ही होना चाहिए अन्यथा उसे मतिपूर्वक नहीं कह सकते । उत्तर- मतिज्ञान श्रुतज्ञान में निमित्तमात्र है उपादान नहीं । उपादान तो श्रुतपर्यायसे परिणत होनेवाला आत्मा है । जैसे दंड चक्रादि घड़े में निमित्त हैं अतः इनका घटरूप परिणमन नहीं होता और न इनके रहने मात्र से घटभवनके अयोग्य रेत ही घड़ा बन सकती है किन्तु घट होने लायक मिट्टी ही घड़ा बनती है उसी तरह श्रोत्रेन्द्रियजन्य मतिज्ञानके निमित्त होने मात्र श्रुतज्ञान नहीं बनता और न श्रुतज्ञानावरण के क्षयोपशम से रहित आत्मामें श्रुतज्ञान होता है किन्तु श्रुतज्ञानावरणके क्षयोपशमसे जिसमें श्रुत होनेकी योग्यता है वही आत्मा श्रुतज्ञानरूपसे परिणत होता है । फिर, यह कोई नियम नहीं है कि कारणके समान ही कार्य होना चाहिए। पुद्गलद्रव्यकी दृष्टिसे मिट्टी रूप कारणके समान घड़ा होता है पर पिण्ड और घट पर्यायोंकी अपेक्षा दोनों विलक्षण हैं । यदि कारणके सदृश ही कार्य हो तो घट अवस्थासे भी पिंड शिवक आदि पर्यायें मिलनी चाहिए थीं। जैसे मृत्पिंडमें जल नहीं भर सकते उसी तरह घड़े में भी नहीं भरा जाना चाहिए । घटका भी घट रूपसे ही परिणमन होना चाहिए, कपालरूप नहीं, क्योंकि आपके मतसे कारणके सर्वथा सदृश ही कार्य के होनेका नियम है । उसी तरह चैतन्य द्रव्यकी दृष्टिसे मति और श्रुत दोनों एक हैं क्योंकि मति भी ज्ञान है और श्रुत भी ज्ञान है । किन्तु तत्तत् ज्ञान पर्यायोंकी दृष्टिसे दोनों ज्ञान जुदा जुदा हैं । 1 १६ प्रश्न - श्रोत्रेन्द्रियजन्य मतिज्ञानसे जो उत्पन्न हो उसे ही श्रुत कहना चाहिए क्योंकि सुनकर जो जाना जाता है वही श्रुत होता है । इस प्रकार चक्षु इन्द्रिय आदिसे श्रुत नहीं हो सकेगा ? उत्तर- श्रुत शब्द श्रुतज्ञान विशेषमें रूढ़ होनेके कारण सभी मतिज्ञान पूर्वक होनेवाले श्रुतज्ञानों में व्याप्त है । १७ प्रश्न - जिसका आदि होता है उसका अन्त भी, अतः श्रुतमें अनादिनिधनता नहीं बन सकती । पुरुषकर्तृ के होने के कारण श्रुत अप्रमाण भी होगा ? उत्तरद्रव्यादि सामान्यकी अपेक्षा श्रुत अनादि है, क्योंकि किसी भी पुरुषने किसी नियत समय में अविद्यमान श्रुतकी उत्पत्ति नहीं देखी । उस उस श्रुत पर्याय की अपेक्षा उसका आदि भी है और अन्त भी । तात्पर्य यह कि श्रुतज्ञान सन्तति की अपेक्षा अनादि है । अपौरुषेयता प्रमाणताका कारण नहीं है अन्यथा चोरी व्यभिचार आदिके उपदेश भी प्रमाण हो जायेंगे For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001811
Book TitleTattvarthvarttikam Part 1
Original Sutra AuthorBhattalankardev
AuthorMahendramuni
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1944
Total Pages454
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size11 MB
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