SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 340
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ १२०] हिन्दी-सार मिले वह अप्रणतिवाक् है। जिससे चोरीमें प्रवृत्ति हो वह मोषवाक् है । सम्यक् मार्गकी प्रवतिका सम्यग्दर्शनवाक है । मिथ्यात्वधिनी मिथ्यावाक है। 'द्वीन्द्रिय आदि जीव वक्ता हैं' जो शब्दोच्चारण कर सकते हैं । द्रव्य क्षेत्र काल भाव आदिकी दृष्टिसे असत्य अनेक प्रकार का है। सत्यके दस भेद हैं-सचेतन या अचेतन द्रव्यका व्यवहारके लिए इच्छानुसार नाम रखना नाम सत्य है। चित्र आदि तदाकार रूपोंमें उसका व्यवहार करना रूप सत्य है । जुआ आदिमें या शतरंजके मुहरों में हाथी घोड़ा आदिकी कल्पना स्थापना सत्य है। औपशमिकादि भावोंकी दृष्टिसे किया जानेवाला व्यवहार प्रतीत्य सत्य है। जो लोकव्यवहार में प्रसिद्ध प्रयोग है उसे संवृति सत्य कहते हैं, जैसे पृथिवी जल आदि अनेक कारणोंसे उत्पन्न भी कमलको पंकज कहना। धूप उबटन आदिमें या कमल मगर हंस सर्वतोभद्र आदि में सचेतन अचेतन द्रव्योंके भाव विधि आकार आदिकी योजना करनेवाले वचन संयोजना सत्य है । आर्य और अनार्य रूपमें विभाजित बत्तीस देशोंमें धर्मादिकी प्रवृत्ति करनेवाले वचन जनपदसत्य हैं। ग्राम नगर राज्य गण मत जाति कुल आदि धर्मो के उपदेशक वचन देशसत्य हैं। संयत या श्रावकको स्वधर्मपालनके लिए 'यह प्रासुक है यह अप्रासुक है' इत्यादि वचन भावसत्य हैं । आगमगम्य पदार्थो का निरूपण समयसत्य है। ___आत्मप्रवादमें आत्मद्रव्यका और छह जीवनिकायोंका अस्ति नास्ति आदि विविध भंगोंसे निरूपण है । कर्मप्रवादमें कर्मो की बन्ध उदय उपशम आदि दशाओंका और स्थिति आदिका वर्णन है। प्रत्याख्यानप्रवादमें व्रत नियम प्रतिक्रमण तप आराधना आदि तथा मुनित्वमें कारण द्रव्योंके त्याग आदिका विवेचन है। विद्यानुवादपूर्वमें समस्त विद्याएँ, आठ महानिमित्त, रज्जु राशिविधि, क्षेत्र, श्रेणी, लोकप्रतिष्ठा, समुद्घात आदिका विवेचन है। अंगुष्ठप्रसेना आदि ७०० अल्पविद्याएँ और रोहिणी आदि ५०० महाविद्याएँ होती हैं । अन्तरीक्ष, भूमि, अङ्ग, स्वर, स्वप्न, लक्षण, व्यञ्जन और छिन्न ये आठ महानिमित्त हैं । क्षेत्र अर्थात् आकाश । कपड़ेके ताने-बानेकी तरह ऊपर-नीचे जो असंख्यात आकाश प्रदेश पंक्तियां हैं उन्हें श्रेणी कहते हैं । अनन्त अलोकाकाशके मध्यमें लोक है। इसमें ऊर्ध्वलोक मृदंगके आकार है । अधोलोक वेत्रासनके आकार तथा मध्यलोक झालरके आकार है। यह लोक तनुवातवलयसे अन्तमें वेष्टित है और चौदह राजू लम्बा है। यह प्रतरवृत्त है । मेरु पर्वतके नीचे वज पृथिवी पर स्थित आठ मध्यप्रदेश लोकमध्य हैं। लोकमध्यसे ऊपर ऐशान स्वर्ग तक १॥ रज्जु, माहेन्द्र स्वर्ग तक ३ रज्जु, ब्रह्मलोक तक ३॥ रज्जु, कापिष्ठ तक ४ रज्जु, महाशुक्र तक ४॥ रज्जु, सहस्रार तक ५ रज्जु, प्राणत तक ५॥ रज्जु, अच्युत तक ६ रज्जु और लोकान्त तक सात रज्जु है । लोकमध्यसे नीचे शर्कराप्रभा तक १ रज्जु, फिर पांचों नरक क्रमशः एक एक राजू हैं। इस प्रकार सातवें नरक तक छह राजू होते हैं। फिर लोकान्त तक एक राजू, इस प्रकार सात राजू हो जाते हैं। घनोदधिवातवलय धनवातवलय और तनुवलय इन तीन वातवलयोंसे यह लोक चारों ओरसे घिरा हुआ है। अधोलोककी दिशा और विदिशामें तीनों वात वलय बीस-बीस हजार योजन मोटे हैं। ऊपर क्रमशः घटकर तीनों वातवलय मध्यलोककी आठों दिशाओंमें ५, ४ और ३ योजन मोटे रह जाते हैं । ऊर्ध्वलोकमें बढ़कर ब्रह्मलोककी आठों दिशाओंमें ७, ५ और ४ योजन मोटे हो जाते हैं। फिर ऊपर क्रमशः घटकर तीनों वलय लोकाग्रमें ५,४ और ३ योजन मोटे रह जाते हैं। ये ऊपर नीचे गोल डंडेके समान हैं। लोकाग्रके ऊपर ये क्रमश: दो गव्यूति, एक कोश और कुछ कम एक कोश प्रमाण Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001811
Book TitleTattvarthvarttikam Part 1
Original Sutra AuthorBhattalankardev
AuthorMahendramuni
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1944
Total Pages454
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size11 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy