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________________ १।१४] हिन्दी-सार ३०५ हैं । यदि शब्दभेदसे अर्थभेद है तो शब्द-अभेदसे अर्थ-अभेद भी होना चाहिए। फलतः वचन पृथिवी आदि ग्यारह अर्थोमें अभेद हो जाना चाहिए, क्योंकि ये सभी एक 'गो' शब्दके वाच्य है। अथवा, जैननयके अनुसार इन शब्दोंमें भेद भी है और अभेद भी। द्रव्यदृष्टिसे जैसे इन्द्रादि शब्द इन्द्र द्रव्यके वाचक होनेसे अभिन्न हैं उसी तरह एक मतिज्ञानावरणके क्षयोपशमसे उत्पन्न सामान्य मतिज्ञानकी अपेक्षासे अथवा एक आत्मद्रव्यकी दृष्टिसे मत्यादि अभिन्न हैं और तत् तत् पर्यायकी दृष्टिसे भिन्न हैं। इन्दनक्रिया शासनक्रिया आदिसे विशिष्ट इन्द्रादिपर्यायें जैसे भिन्न हैं उसी तरह मनन स्मरण संज्ञान चिन्तन आदि पर्यायें भी भिन्न है। यह पर्यायार्थिक नयकी दृष्टि है। ६-७ प्रश्न-जैसे मनुष्य मानव मनुज आदि पर्याय शब्द मनुष्यके लक्षण नहीं हैं उसी तरह मति आदि पर्याय शब्द भी मतिज्ञानके लक्षण नहीं हो सकते । उत्तर-जो पर्याय पर्यायवालेसे अभिन्न होती है वह लक्षण बनती है जसे उष्ण पर्याय अग्निसे अभिन्न होनेके कारण अग्निका लक्षण बनती ही है। जैसे मनुष्य मानव मनुज आदि शब्द घटादि द्रव्योंसे व्यावृत्त होकर एक सामान्य मनुष्य रूप अर्थके लक्षक होनेसे लक्षण हैं, अन्यथा यदि ये मनुष्य सामान्यका प्रतिपादन न करें तो मनुष्यका अभाव ही हो जायगा उसी प्रकार मति आदि शब्द अभिनिबोधसामान्यात्मक मतिज्ञानके लक्षक होनेसे मतिज्ञानके लक्षण होते हैं । जैसे 'अग्नि कौन ?' यह प्रश्न होनेपर बुद्धि तुरंत दौड़ती है कि 'जो उष्ण', और 'कौन उष्ण' कहनेपर 'जो अग्नि' इस प्रकार गत्वा-प्रत्यागत न्याय (समान प्रश्नोत्तर न्याय) से भी पर्याय शब्द लक्षण बन सकते हैं । मति आदिमें भी यही न्याय समझना चाहिए, यथा'मतिज्ञान कौन ?' 'जो स्मृति आदि', 'स्मृति आदि क्या हैं? जो 'मतिज्ञान' । इस प्रकार मत्यादि पर्याय शब्दोंके लक्षण बनने में कोई बाधा नहीं है । सभी पर्यायें लक्षण नहीं होती किन्तु आत्मभूत अन्तरंग पर्याय ही लक्षण होती है। अग्निका लक्षण उष्णता तो हो सकती है धूम आदि नहीं। उसी तरह मति आदि ज्ञान पर्यायें लक्षण हो सकती हैं न कि मति आदि पुद्गल शब्द आदि बाह्य पदार्थ ।। ८-१० अथवा, इति शब्द अभिधेयवाची है । अर्थात् मति स्मृति संज्ञा आदिके द्वारा जो अर्थ कहा जाता है वह मतिज्ञान है । मत्यादिके द्वारा श्रुतज्ञान आदिका तो कथन होता ही नहीं है क्योंकि उनके भिन्न भिन्न लक्षण आगे कहे जायेंगे। मतिज्ञानकी उत्पत्तिके कारण तदिन्द्रियानिन्द्रियनिमित्तम् ॥१४॥ मतिज्ञान इन्द्रिय और मनसे उत्पन्न होता है। १ इन्द्र अर्थात् आत्मा। कर्ममलीमस आत्मा सावरण होनेसे स्वयं पदार्थोके ग्रहणमें असमर्थ होता है। उस आत्माको अर्थोपलब्धिमें लिङ्ग अर्थात् द्वार या कारण इन्द्रियाँ होती हैं। ६२-३ अनिन्द्रिय अर्थात् मन, अन्तःकरण । जैसे अब्राह्मण कहनेसे ब्राह्मणत्वरहित किसी अन्य पुरुषका ज्ञान होता है वैसे अनिन्द्रिय कहनेसे इन्द्रियरहित किसी अन्य पदार्थका बोध नहीं करना चाहिए। क्योंकि अनिन्द्रियमें जो 'न' है वह 'ईषत् प्रतिषेध'को Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001811
Book TitleTattvarthvarttikam Part 1
Original Sutra AuthorBhattalankardev
AuthorMahendramuni
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1944
Total Pages454
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size11 MB
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