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________________ ३०४ तत्त्वार्थवार्तिक [ ११३ और प्रमाणाभासकी व्यवस्था नहीं बन सकेगी क्योंकि अन्तरंग आकारमें तो कोई भेद नहीं होता । जो 'असत्' को 'सत्' जाने वह प्रमाणाभास और जो 'असत्' ही है यह जाने वह प्रमाण - इस प्रकारकी प्रमाण- प्रमाणाभास व्यवस्था माननेपर स्वलक्षण और सामान्यलक्षण इन दो प्रमेयोंसे प्रत्यक्ष और अनुमान इन दो प्रमाणोंका नियम करना असङ्गत हो जायगा; क्योंकि यह नियम प्रमेयकी सत्ता स्वीकार करके किया गया है । 'प्रत्यक्ष स्वलक्षणको विषय करता है, असाधारण वस्तु स्वलक्षण है, वह विकल्पातीत है, इसीका 'यह वह' इत्यादिरूपसे व्यवहारमें निर्देश होता है, सामान्य अनुमानका विषय होता है' आदि व्याख्याएँ सर्वाभाववाद में नहीं बन सकतीं । सर्वाभाववादमें किसी भी भेदकी संभावना ही नहीं की जा सकती । सम्बन्धियोंके भेदसे अभाव में भेद कहना तो तब उचित है जब सम्बन्धियोंकी सत्ता सिद्ध हो । संवेदनाद्वैतवादीका यह कथन भी उचित नहीं है कि सभी ज्ञान निरालम्बन होनेसे अयथार्थ है, निर्विकल्पक स्वज्ञान ही प्रमाण है । शास्त्रों में जो प्रमाण प्रमेय आदिकी प्रक्रिया है उसके द्वारा अविद्याका ही विस्तार किया गया है। विद्या तो आगमविकल्पसे परे है, वह स्वयं प्रकाशमान है"; क्योंकि संवेदनाद्वैतकी सिद्धिका कोई उपाय नहीं है । कहा भी है "जो संवेदनाद्वैत प्रत्यक्षबुद्धिका विषय नहीं है, जिसका अनुमान अर्थरूप लिंगके द्वारा हो नहीं सकता, और जिसके स्वरूपकी सिद्धि वचनों द्वारा भी नहीं हो सकती उस सर्वथा असिद्ध संवेदनको माननेवालोंकी क्या गति होगी ?” अतः संवेदनाद्वैतवाद त्याज्य हूँ । मति ज्ञानके प्रकार मतिः स्मृतिः संज्ञा चिन्ताऽभिनिबोध इत्यनर्थान्तरम् ॥१३॥ मति स्मृति संज्ञा चिन्ता और अभिनिबोध आदि मतिज्ञानावरणके क्षयोपशमसे होनेके कारण भिन्न नहीं है । १ इति शब्द के अनेक अर्थ होते हैं - यथा 'हन्तीति पलायते - मारा इसलिए भागा यहाँ इति शब्दका अर्थ हेतु है । 'इति स्म उपाध्यायः कथयति--उपाध्याय इस प्रकार कहता है' यहाँ ‘इस प्रकार' अर्थ है । 'गौः अश्वः इति - गाय घोड़ा आदि प्रकार' यहाँ इतिशब्द प्रकारवाची है । 'प्रथम माह्निकमिति, यहाँ इति शब्दका अर्थ समाप्ति है । इसी तरह व्यवस्था अर्थविपर्यास शब्दप्रादुर्भाव आदि अनेक अर्थ हैं । यहाँ विवक्षासे आदि और प्रकार ये दो अर्थ लेने चाहिए । मति स्मृति आदिमें आदि शब्दसे प्रतिभा बुद्धि उपलब्धि आदिका ग्रहण होता है । २ यद्यपि मति आदि शब्दोंमें अर्थभेद है फिर भी रूढ़िवश इन शब्दों में एकार्थता है । जैसे कि 'गच्छति गो:' इस प्रकार व्युत्पत्त्यर्थं मान लेने पर भी गौ शब्द सभी चलनेवालों में प्रयुक्त न होकर एक पशुविशेषमे रूढ़िके कारण प्रयुक्त होता है । ये सभी मति आदि मतिज्ञानावरण के क्षयोपशमसे ही पदार्थबोध कराते हैं अतः इनमें भेद नहीं है । १३-५ प्रश्न - जैसे गौ अश्व आदिमें शब्दभेदसे अर्थभेद है उसी तरह मत्यादिमें भी होना चाहिए । उत्तर - ' शब्द भेदसे अर्थभेद का नियम संशय उत्पन्न करनेवाला है उससे किसी पक्षविशेषका निर्णय नहीं हो सकता, क्योंकि इन्द्र शक और पुरन्दर आदिमें शब्दभेद होनेपर भी अर्थभेद नहीं देखा जाता। तीनों शब्द एक इन्द्र अर्थ के वाचक Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001811
Book TitleTattvarthvarttikam Part 1
Original Sutra AuthorBhattalankardev
AuthorMahendramuni
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1944
Total Pages454
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size11 MB
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