SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 329
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ३०६ तत्त्वार्थवार्तिक [१११५ कहता है। जैसे 'अनुदरा कन्या' कहनेसे 'बिना पेटकी लड़की' न समझकर गर्भ धारण आदिके अयोग्य छोटे पेटवाली लड़कीका ज्ञान होता है उसी तरह अनिन्द्रियसे इन्द्रियत्वका अभाव नहीं होता किन्तु मन, चक्षुरादिकी तरह प्रतिनियत देशवर्ती विषयोंको नहीं जानकर अनियत विषयवाला है अतः वह 'अनिन्द्रिय' पदका वाच्य होता है । मन, गुण दोष विचार आदि अपनी प्रवृत्तिमें इन्द्रियादिकी अपेक्षा नहीं रखता अतः वह अन्तरंग करण होनेसे अन्तःकरण कहा जाता है। ४ यद्यपि मतिज्ञानका प्रकरण होनेसे मतिज्ञानका सम्बन्ध हो ही जाता है अतः इस सूत्रमें 'तत्' शब्दके ग्रहणकी आवश्यकता न थी; फिर भी आगेके सूत्रमें कहे जानेवाले अवग्रहादि भेद मतिज्ञानके हैं यह स्पष्ट बोध करानेके लिए यहाँ 'तत्' शब्दका ग्रहण किया है। मतिज्ञानके भेद अवग्रहहावायधारणाः ॥१५॥ अवग्रह ईहा अवाय और धारणा ये चार मतिज्ञानके भेद हैं। १ विषय और विषयी-इन्द्रियोंका सन्निपात अर्थात् योग्य देशस्थिति होनेपर दर्शन होता है । इसके बाद जो आद्य अर्थग्रहण है वह अवग्रह कहलाता है । २ अवग्रहके द्वारा 'यह पुरुष है' ऐसा आद्यग्रहण होनेपर पुनः उसकी भाषा उमर रूपादिके द्वारा विशेष जाननेकी ओर झुकना ईहा है। ३ भाषा आदि विशेषोंके द्वारा उसकी उस विशेषताका यथार्थ ज्ञान कर लेना अवाय है जैसे यह दक्षिणी है युवा है या गौर है आदि। ६४ निश्चित विशेषकी कालान्तरमें स्मृतिका कारण धारणा होती है। ५ अवग्रह आदि क्रमशः उत्पन्न होते हैं, अतः उनका सूत्र में क्रमशः ग्रहण किया है। ६६-१० प्रश्न-जैसे चक्षुके रहते हुए संशय होता है अतः उसे निर्णय नहीं कह सकते उसी तरह अवग्रहके होते हुए ईहा देखी जाती है। ईहा निर्णय रूप तो है नहीं क्योंकि निर्णयके लिए ईहा है न कि स्वयं निर्णयरूप, और जो निर्णयरूप नहीं है वह संशयकी ही कोटिका होता है अतः अवग्रह और ईहाको प्रमाण नहीं कह सकते । जैसे ऊर्ध्वताका आलोचन होनेपर भी स्थाणु और पुरुष कोटिक संशय हो जाता है उसी तरह अवग्रहके द्वारा 'यह पुरुष है' इस ग्रहणमें भी आगेके विशेषोंको लेकर संशय उत्पन्न होता है। अतः अवग्रहमें ईहाकी अपेक्षा होनेसे करीब-करीब संशयरूपता ही है। उत्तरअवग्रह और संशयके लक्षण जल और अग्निकी तरह अत्यन्त भिन्न हैं, अतः दोनों जुदेजुदे हैं। संशय स्थाणु पुरुष आदि अनेक पदार्थो में दोलित रहता है, अनिश्यचात्मक होता है और स्थाणु पुरुष आदिमेंसे किसीका निराकरण नहीं करता जब कि अवग्रह एक ही अर्थको विषय करता है, निश्चयात्मक है और स्वविषयसे भिन्न पदार्थोंका निराकरण करता है। सारांश यह कि संशय निर्णयका विरोधी होता है अवग्रह नहीं। अवग्रहमें भाषा वय रूप आदि सम्बन्धी निश्चय न होने के कारण उसे संशयतुल्य कहना उचित नहीं है; क्योंकि अवग्रह जितने विशेषको जानता है उतनेका निर्णय ही करता है ।। ०११-१३ निर्णयात्मक न होनेसे ईहाको संशय कहना भी ठीक नहीं है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001811
Book TitleTattvarthvarttikam Part 1
Original Sutra AuthorBhattalankardev
AuthorMahendramuni
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1944
Total Pages454
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size11 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy