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________________ ३०२ तत्त्वार्थवार्तिक ज्ञानमात्र निरालम्बन है तब योगियोंको सर्वार्थज्ञानकी संभावना ही नहीं की जा सकती। निर्विकल्प पदार्थकी कल्पना न तो युक्तिसंगत ही है और न प्रमाण सिद्ध ही। बौद्धोंके मतमें योगीकी सत्ता भी स्वयं सिद्ध नहीं है, निर्वाणदशामें तो सर्वशून्यता तक स्वीकार की गई है। कहा भी है-'निर्वाण दो प्रकारका है-सोपधिशेष और निरुपधिशेष । सोपधिशेष निर्वाणमें ज्ञाताकी सत्ता रहती है। परन्तु जिस प्रकारसे वे बाह्य पदार्थों का अभाव करते हैं उन्हीं युक्तियोंसे अन्तरङ्ग पदार्थ आत्माका भी अभाव हो जायगा। नैयायिक का यह कहना भी उचित नहीं है कि 'आत्मा इन्द्रियादिसे रहित होकर भी योगजधर्मके प्रसादसे सर्वज्ञ हो सकता है, क्योंकि निष्क्रिय और नित्य योगीमें जिस प्रकार समस्त क्रियाएँ नहीं होती उसी तरह कोई भी अनुग्रह या विकार भी नहीं हो सकता, वह तो कूटस्थ अपरिणामी नित्य है । ६ ११ बौद्धों का प्रत्यक्षका 'कल्पनापोढ' लक्षण भी नहीं बनता; क्योंकि कल्पनापोढ अर्थात् निर्विकल्पक प्रत्यक्ष यदि सर्वथा कल्पनापोढ है, तो 'प्रमाण ज्ञान है, प्रत्यक्ष कल्पनापोढ है' इत्यादि कल्पनाएं भी उसमें नहीं की जा सकेंगी अर्थात् उसके अस्तित्व आदि की भी कल्पना नहीं की जा सकेगी, उसका 'अस्ति' इस प्रकारसे भी सद्भाव-सिद्ध नहीं होगा। यदि उसमें 'अस्ति' 'कल्पनापोढ' इत्यादि कल्पनाओंका सद्भाव माना जाता है तो वह सर्वथा कल्पनापोढ नहीं कहलायगा। यदि कथञ्चित् कल्पनापोढ माना जाता है तब भी स्ववचनव्याघात निश्चित है। बौद्ध (पूर्वपक्ष)-निर्विकल्पकको हम सर्वथा कल्पनापोढ नहीं कहते । कल्पनापोड यह विशेषण परमतके निराकरणके लिए है अर्थात् परमतमें नामजाति आदि भेदोंके उपचारको कल्पना कहा है उस कल्पनासे रहित प्रत्यक्ष होता है न कि स्वरूपभूत विकल्पसे भी रहित । कहा भी है-“पाँच विज्ञानधातु सवितर्क और सविचार हैं , वे निरूपण और अनुस्मरण रूप विकल्पोंसे रहित हैं।" जैन (उत्तरपक्ष)-विषयके प्रथम ज्ञानको वितर्क कहते हैं। उसीका बार बार चिन्तन विचार कहलाता है। उसीमें नाम जाति आदिकी दृष्टिसे शब्दयोजनाको निरूपण कहते हैं। पूर्वानुभवके अनुसार स्मरणको अनुस्मरण कहते हैं। ये सभी धर्म क्षणिक निरन्वय विनाशी इन्द्रियविषय और ज्ञानोंमें नहीं बन सकते क्योंकि दोनोंकी एक साथ उत्पत्ति होती है और क्षणिक हैं। गायके एक साथ उत्पन्न होनेवाले दोनों सीगोंकी तरह इनमें परस्पर कार्यकारणभावमूलक ग्राह्यग्राहकभाव भी नहीं बन सकता। यदि पदार्थ और ज्ञानको क्रमवर्ती मानते हैं तो ज्ञानकालमें पदार्थका तथा पदार्थकालमें ज्ञानका अभाव होने से विषयविषयिभाव नहीं बन सकता। मिथ्या सन्तानकी अपेक्षा भी इनमें उक्त धर्मोका समावेश करना उचित नहीं है । अतः समस्त विकल्पोंकी असम्भवता होनेसे 'यह, निर्विकल्पक है, यह नहीं है' आदि कोई भी विकल्प नहीं हो सकेगा। इस तरह समस्त विकल्पातीत जानका अभाव ही प्राप्त होता है । ज्ञानमें अनुस्मरण आदि माननेपर तो उस ज्ञानको या ज्ञानाधार आत्माको अनेकक्षणस्थायी मानना होगा, क्योंकि स्मरण स्वयमनुभूत वस्तुका कालान्तरमें होता है, अन्यके द्वारा अनुभूतका अन्यको नहीं। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001811
Book TitleTattvarthvarttikam Part 1
Original Sutra AuthorBhattalankardev
AuthorMahendramuni
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1944
Total Pages454
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size11 MB
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