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________________ ११२] हिन्दी-सार ३०१ आत्ममात्रकी अपेक्षासे हो वह प्रत्यक्ष' प्रत्यक्ष शब्दका यह व्युत्पत्त्यर्थं करनेसे इन्द्रिय और मनरूप परकी अपेक्षाकी निवृत्ति हो जाती है । 'ज्ञान' का प्रकरण है, अतः अनाकार दर्शनका व्यवच्छेद हो जाता है । इसी तरह 'सम्यक्' का प्रकरण होनेसे व्यभिचारी ज्ञानकी निवृत्ति हो जाती है ? ४-५ प्रश्न - इन्द्रिय और मन रूप बाह्य और आभ्यन्तर करणोंके बिना ज्ञान का उत्पन्न होना ही असम्भव है। बिना करणके तो कार्य होता ही नहीं है ? उत्तरअसमर्थके लिए बसूला करीत आदि बाह्य साधनोंकी आवश्यकता होती है । जैसे रथ बनानेवाला साधारण रथकार उपकरणोंसे रथ बनाता है किन्तु समर्थ तपस्वी अपने ऋद्धिबलसे बाह्य बसूला आदि उपकरणों के बिना संकल्प मात्र से रथको बना सकता है उसी तरह कर्ममलीमस आत्मा साधारणतया इन्द्रिय और मनके बिना नहीं जान सकता पर वही आत्मा जब ज्ञानावरणका विशेष क्षयोपशम रूप शक्तिवाला हो जाता है या ज्ञानावरणका पूर्ण क्षय कर देता है तब उसे बाह्य करणोंके बिना भी ज्ञान हो जाता है। आत्मा तो सूर्य आदिकी तरह स्वयंप्रकाशी है, इसे प्रकाशनमें परकी अपेक्षा नहीं होती है। आत्मा विशिष्ट क्षयोपशम या आवरणक्षय होनेपर स्वशक्तिसे ही पदार्थों को जानता है 8६-८ प्रश्न- इन्द्रियव्यापारजन्य ज्ञानको प्रत्यक्ष और अपेक्षा न रखनेवाले ज्ञानको परोक्ष कहना चाहिए। सभी वादी इसमें प्रायः एकमत हैं । यथा, बौद्ध कल्पनापोढ अर्थात् निर्विकल्प ज्ञानको प्रत्यक्ष कहते हैं । नाम जाति आदिकी योजना कल्पना कहलाती है । इन्द्रियां चूँकि असाधारण कारण हैं अतः चाक्षुष प्रत्यक्ष रासन प्रत्यक्ष आदि रूपसे इन्द्रियोंके अनुसार प्रत्यक्षका नामकरण हो जाता है । नैयायिक इन्द्रिय और अर्थके सन्निकर्षसे उत्पन्न होनेवाले, अव्यपदेश्य - निर्विकल्पक, अव्यभिचारि और व्यवसायात्मक ज्ञानको प्रत्यक्ष कहते हैं । सांख्य श्रोत्रादि इन्द्रियोंकी वृत्ति को प्रत्यक्ष कहते हैं । मीमांसक इन्द्रियोंका सम्प्रयोग होनेपर पुरुषके उत्पन्न होनेवाली fast प्रत्यक्ष मानते हैं । । इन्द्रिय- व्यापारकी उत्तर- इन्द्रियजन्य ज्ञानको प्रत्यक्ष माननेसे आप्तके प्रत्यक्ष ज्ञान न हो सकेगा, सर्वज्ञताका लोप हो जायगा, क्योंकि सर्वज्ञ आप्तके इन्द्रियज ज्ञान नहीं होता । आगमसे अतीन्द्रिय पदार्थों का ज्ञान मानकर सर्वज्ञताका समर्थन करना तो युक्तियुक्त नहीं है; क्योंकि आगम प्रत्यक्षदर्शी वीतराग पुरुषके द्वारा प्रणीत होता है । जब अतीन्द्रिय प्रत्यक्ष सिद्ध नहीं है तब अतीन्द्रिय पदार्थोंमें आगमका प्रामाण्य कैसे बन सकता है ? आगमका अपौरुषेयत्व तो असिद्ध है । पुरुष प्रयत्नके बिना उत्पन्न हुआ शब्द प्रमाण नहीं है । हिंसादिका विधान करनेवाला वेद प्रमाण १९-१० बौद्ध का यह कहना भी उचित नहीं है कि- 'योगियोंको आगम विकल्पसे शून्य एक अतीन्द्रिय प्रत्यक्ष होता है, उससे वह समस्त पदार्थोंका ज्ञान करता है। कहा भी है- योगियोंको गुरुनिर्देश अर्थात् आगमोपदेशके बिना पदार्थमात्रका बोध हो जाता है; क्योंकि इस मतमें प्रत्यक्ष शब्दका अक्ष- इन्द्रियजन्य अर्थ नहीं बनेगा, कारण योगियों के इन्द्रियां नहीं हैं । अथवा, जब 'स्वहेतु परहेतु उभयहेतु या बिना हेतुके पदार्थ उत्पन्न नहीं हो सकते, सामान्य और विशेषमें एकदेश और सर्वदेश रूपसे वृत्ति माननेपर अनेक दूषण आते हैं' आदि हेतुओंसे पदार्थमात्रका अभाव किया जाता है और Jain Education International कोई भी विधायक नहीं हो सकता । For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001811
Book TitleTattvarthvarttikam Part 1
Original Sutra AuthorBhattalankardev
AuthorMahendramuni
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1944
Total Pages454
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size11 MB
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