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२९३ तत्त्वार्थवार्तिक
[१२८ का आधार होता है अतः उसको सर्वप्रथम ग्रहण किया है । गुण और क्रिया आदि किसीमें होते हैं किसीमें नहीं पर 'सत्' सर्वत्र अप्रतिहतगति है ।
६३ जिसका सद्भाव प्रसिद्ध है उसी पदार्थकी संख्यात असंख्यातं या अनन्त रूपसे गणना की जाती है अतः सतके बाद परिमाण निश्चय करनेवाली संख्याका ग्रहण किया गया है।
४ जिसकी संख्याका परिज्ञान हो गया है उस पदार्थके ऊपर-नीचे आदि रूपसे वर्तमान निवासकी प्रतिपत्तिके अर्थ उसके बाद क्षेत्रका ग्रहण किया है।
६५ पदार्थोंकी त्रैकालिक अवस्थाएँ विचित्र होती हैं, अतः त्रैकालिक क्षेत्रकी प्रतिपत्ति के लिए उसके बाद स्पर्शनका ग्रहण किया है। किसीका क्षेत्र प्रमाण ही स्पर्शन होता है तो किसीका एक जीव या नाना जीवोंकी अपेक्षा ६ राजू या आठ राजू ।
१६ किसी क्षेत्रमें स्थित पदार्थकी काल मर्यादा निश्चय करना काल है।
६७ अन्तर शब्दके अनेक अर्थ हैं । यथा-'सान्तरं काष्ठम्' में छिद्र अर्थ है । 'द्रव्याणि द्रव्यान्तरमारभते' यहां द्रव्यान्तरका अर्थ अन्य द्रव्य है। 'हिमवत्सागरान्तरे में अन्तर शब्दका अर्थ मध्य है। 'शुक्लरक्ताद्यन्तरस्थस्य स्फटिकस्य-सफेद और लाल रंगके समीप रखा हुआ स्फटिक' यहाँ अन्तरका समीप अर्थ है। कहींपर 'विशेषता' अर्थमें भी प्रयुक्त होता है । जैसे 'घोड़ा हाथी और लोहेमें' 'लकड़ी पत्थर और कपड़ेमें' स्त्री-पुरुष
और जलमें अन्तर ही नहीं, महान् अन्तर है । यहाँ अन्तर शब्द वैशिष्ट यवाचक ह । 'ग्रामस्यान्तरे कपाः' में बाह्यार्थक अन्तर शब्द है अर्थात् गाँवके बाहर कुआ है। कहीं उपसंव्यान अर्थात् अन्तर्वस्त्रके अर्थमें अन्तर शब्दका प्रयोग होता है यथा 'अन्तरे शाटकाः'। कहीं विरह अर्थमें जैसे 'अनभिप्रेत श्रोतृजनान्तरे मन्त्रयते-अनिष्ट व्यक्तियोंके विरहमें मन्त्रणा करता है। प्रकृतमें छिद्र मध्य और विरहमेंसे कोई एक अर्थ लेना चाहिए।
८ किसी समर्थ द्रव्यकी किसी निमित्तसे अमुक पर्यायका अभाव होनेपर निमित्तान्तरसे जब तक वह पर्याय पुनः प्रकट नहीं होती तब तकके कालको अन्तर कहते हैं।
६९ औपमशमिक आदि परिणामोंके निर्देशके लिए भावका ग्रहण किया है।
१० संख्याका निश्चय होनेपर भी परस्पर न्यूनाधिक्यका ज्ञान करनेके लिए अल्पबहुत्वका कथन है।
११-१४ प्रश्न-निर्देशके ग्रहणसे ही 'सत्'का अर्थ पूरा हो जाता है अतः इस सूत्रमें 'सत्' का ग्रहण निरर्थक है ? उत्तर-'सत्' के द्वारा गति इन्द्रिय काय आदि चौदह मार्गणाओंमें 'कहां है कहां नहीं है ?' आदिरूपसे सम्यग्दर्शनादिका अस्तित्व सूचित किया जाता है । अधिकृत जीवादि और सम्यग्दर्शनादिका यद्यपि 'निर्देश के द्वारा ग्रहण हो जाता है परन्तु अनधिकृत क्रोधादि या अजीवपर्याय वर्णादिके अस्तित्वका सूचन करनेके लिए 'सत्' का ग्रहण आवश्यक है।
६१५ विधान और संख्या ग्रहणके पृथक्-पृथक् प्रयोजन है -विधानके द्वारा सम्यग्दर्शनादिके प्रकारोंकी गिनती की जाती है और प्रत्येक प्रकारकी वस्तुओंकी गिनती संख्याके द्वारा की जाती है-इतने उपशम सम्यग्दृष्टि हैं, इतने क्षायिकसम्यग्दृष्टि हैं आदि ।
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