________________
११८]
हिन्दी-सार - सम्यग्दर्शन-तत्त्वार्थश्रद्धानको सम्यग्दर्शन कहते हैं अथवा नामादिरूप भी सम्यग्दर्शन होता है । स्वामी आत्मा और सम्यग्दर्शन पर्याय है। दर्शनमोहके उपशम आदि अन्तरंग साधन हैं, उपदेश आदि बाह्य साधन हैं। स्वामि सम्बन्धके योग्य वस्तु अधिकरण है। जघन्य स्थिति अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट स्थिति कुछ अधिक उधासठ सागर प्रमाण है । अथवा औपशमिक और क्षायोपशमिक सम्यग्दर्शन सादि सान्त होते हैं तथा क्षायिक सम्यग्दर्शन सादि अनन्त । सामान्यसे सम्यग्दर्शन एक है, निसर्गज और अधिगमज रूपसे दो प्रकारका है, औपशमिक क्षायिक और क्षायोपशमिकके भेदसे तीन प्रकारका है । इसी तरह विभिन्न परिणामोंकी दृष्टिसे संख्यात असंख्यात और अनन्त विकल्प होते हैं।
___ज्ञान-जीवादितत्त्वोंके प्रकाशनको ज्ञान कहते हैं अथवा नामादि रूप भी ज्ञान होता है । स्वामी आत्मा है या ज्ञान पर्याय । ज्ञानावरण आदि कर्मका क्षयोपशम आदि साधन हैं अथवा अपनेको प्रकट करनेकी योग्यता। आत्मा अथवा स्वाकार ही अधिकरण है । क्षायोपशमिक मति आदि चार ज्ञान सादि सान्त हैं। क्षायिक ज्ञान सादि अनन्त होता है। सामान्यसे ज्ञान एक है, प्रत्यक्ष और परोक्षके भेदसे दो प्रकारका है। द्रव्य गुण और पर्यायरूप ज्ञेयके भेदसे तीन प्रकारका है। नामादिके भेदसे चार प्रकारका है । मति श्रुत अवधि आदिके भेदसे पांच प्रकारका है। इसी तरह ज्ञेयाकार परिणतिके भेदसे संख्यात असंख्यात और अनन्त विकल्प होते हैं।
चारित्र-कर्मों के आनेके कारणोंकी निवृत्तिको चारित्र कहते हैं अथवा नामादिरूप भी चारित्र होता है। आत्मा अथवा चारित्रपर्याय स्वामी है। चारित्रमोहका उपशम आदि अथवा चारित्रशक्ति साधन हैं। स्वामिसम्बन्धके योग्य वस्तु अधिकरण है । जघन्यस्थिति अन्तर्मुहुर्त और उत्कृष्ट स्थिति कुछ कम पूर्वकोटी प्रमाण है । अथवा औपशमिक और क्षायोपशमिक चारित्र सादि और सान्त हैं। क्षायिक चारित्र शुद्धिकी प्रकटताकी अपेक्षा सादि अनन्त होता है। सामान्यसे चारित्र एक है। बाह्य और आभ्यन्तर निवृत्तिकी अपेक्षा दो प्रकारका है। औपशमिक क्षायिक और क्षायोपशमिकके भेदसे तीन प्रकारका है। चार प्रकारके यतिकी दृष्टिसे या चतुर्यमकी अपेक्षा चार प्रकारका है। सामायिक आदिके भेदसे पांच प्रकारका है। इसी तरह विविध निवृत्तिरूप परिणामोंकी दृष्टिसे संख्यात असंख्यात और अनन्त विकल्परूप होता है ।
जीवादिके अधिगमके अन्य उपाय
सत्संख्याक्षेत्रस्पर्शनकालान्तरभावाल्पबहुत्वैश्च ॥८॥ सत् संख्या क्षेत्र स्पर्शन काल अन्तर भाव और अल्प बहुत्वके द्वारा भी जीवादिपदार्थोंका अधिगम होता है।
६१-२ यद्यपि 'सत्' शब्दका प्रयोग अनेक अर्थोंमें होता है-जैसे 'सत्पुरुष, सदश्व' यहाँ प्रशंसार्थक सत् शब्द है। 'सन् घटः सन् पटः' यहाँ सत् शब्द अस्तित्ववाचक है। 'प्रवजितः सन् कथमनृतं ब्रूयात्-अर्थात् दीक्षित होकर असत्य भाषण कसे कर सकते हैं' यहाँ सत् शब्द प्रतिज्ञावाचक है। 'सत्कृत्य'में सत् शब्द आदरार्थक है । यहाँ विवक्षासे सत् शब्द विद्यमानवाची ग्रहण किया गया है। चूंकि सत् सर्वपदार्थव्यापी है और समस्त विचारों
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org