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________________ तत्वार्थवार्तिक [ १७ बन्ध - जीव और कर्मप्रदेशोंका परस्पर संश्लेष बन्ध है अथवा जिसका नाम बन्ध रखा या स्थापना आदि की, वह बन्ध है । बन्धका फल जीवको भोगना पड़ता है अतः स्वामी जीव है। चूँकि बन्ध दोमें होता है अतः पुद्गल कर्म भी स्वामी कहा जा सकता है । मिथ्यादर्शन अविरति प्रमाद कषाय और योग ये बन्धके साधन हैं अथवा इन रूपसे परिणत आत्मा साधन है । स्वामिसम्बन्धके योग्य वस्तु ही अर्थात् जीव और कर्मपुद्गल ही बन्धके आधार हैं । जघन्य स्थिति वेदनीयकी बारह मुहूर्त, नाम और गोत्रकी आठ मुहूर्त और शेष कर्मोंकी अन्तर्मुहूर्त है । उत्कृष्ट स्थिति ज्ञानावरण दर्शनावरण वेदनीय और अन्तरायकी तीस कोड़ा सागर है। मोहनीयकी सत्तर कोड़ाकोड़ी, नाम और गोत्रकी बीस कोड़ाकोड़ी सागर है । आयुकी तेतीस सागर स्थिति है । अभव्य जीवोंके बन्ध सन्तानकी अपेक्षा अनाद्यनन्त है। उन भव्योंका बन्ध भी अनाद्यनन्त है जो अनन्तकाल तक सिद्ध न होंगे। ज्ञानावरण आदि कर्मो का उत्पाद और विनाश प्रतिसमय होता रहता है अतः सादि सान्त भी है । सामान्यरूपसे बन्ध एक है । शुभ और अशुभके भेदसे दो प्रकार है । द्रव्य भाव और उभयके भेदसे तीन प्रकारका है । प्रकृति स्थिति अनुभाग और प्रदेशके भेदसे चार प्रकारका है । मिथ्यादर्शनादि कारणोंके भेदसे पांच प्रकारका है । नाम स्थापना द्रव्य क्षेत्र काल और भावरूपसे छह प्रकारका है । इनमें भव और मिलानेसे सात प्रकार का है। ज्ञानावरण आदि मूल कर्मप्रकृतियोंकी दृष्टिसे आठ प्रकारका है । इस प्रकार कारणकार्यकी दृष्टिसे संख्यात असंख्यात और अनन्त विकल्प होते हैं । २९० संवर- आस्रव-निरोधको संवर कहते हैं अथवा नामादि रूप भी संवर होता है । इसका स्वामी जीव होता है अथवा रोके जानेवाले कर्मकी दृष्टिसे कर्म भी स्वामी है । गुप्ति समिति धर्म अनुप्रेक्षा आदि साधन हैं। स्वामि सम्बन्धके योग्य वस्तु आधार है । जघन्य स्थिति अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट स्थिति कुछ कम पूर्वकोटि प्रमाण है । विधान एकसे लेकर एक सौ आठ तक तथा आगे भी संख्यात आदि विकल्प होते हैं। तीन गुप्ति, पांच समिति, दस धर्म, बारह अनुप्रेक्षा, बाईस परीषहजय, बारह तप, नव प्रायश्चित्त, चार विनय, दस वैयावृत्त्य, पांच स्वाध्याय, दो व्युत्सर्ग, दस धर्म ध्यान और चार शुक्लध्यान ये संवरके १०८ भेद होते हैं । निर्जरा- यथाकाल या तपोविशेषसे कर्मोकी फलदानशक्ति नष्ट कर उन्हें झड़ा देना निर्जरा है । नामस्थापना आदि रूप भी निर्जरा होती है। निर्जराका स्वामी आत्मा है अथवा द्रव्य निर्जराका स्वामी जीव भी है । तप और समयानुसार कर्मविपाक ये दो साधन हैं । आत्मा या निर्जराका स्वस्वरूप आधार है । सामान्यसे निर्जरा एक प्रकार की है, यथाकाल और औपक्रमिकके भेदसे दो प्रकार की है, मूल कर्मप्रकृतियोंकी दृष्टिसे आठ प्रकार की है, इसी तरह कर्मके रसको क्षीण करनेके विभिन्न प्रकारोंकी अपेक्षा संख्यात असंख्यात और अनन्त भेद होते हैं । मोक्ष - संपूर्ण कर्मोंका क्षय मोक्ष है अथवा नामादिरूप मोक्ष होता है । परमात्मा और मोक्षस्वरूप ही स्वामी है । सम्यग्दर्शन सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र मोक्षके साधन हैं । स्वामिसम्बन्धके योग्य पदार्थं अर्थात् जीव और पुद्गल आधार होते हैं । सादि अनन्त स्थिति है । सामान्यसे मोक्ष एक ही प्रकारका है । द्रव्य भाव और भोक्तव्यकी दृष्टिसे अनेक प्रकार का है । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001811
Book TitleTattvarthvarttikam Part 1
Original Sutra AuthorBhattalankardev
AuthorMahendramuni
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1944
Total Pages454
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size11 MB
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