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________________ १९] हिन्दी-सार २६३ १६ यद्यपि आपाततः क्षेत्र और अधिकरणमें कोई अन्तर नहीं है फिर भी अधिकृत अनधिकृत सभी पदार्थो का क्षेत्र बताने के लिए विशेषरूपसे क्षेत्रका ग्रहण किया है। १७-१९ प्रश्न क्षेत्रके होनेपर ही स्पर्शन होता है, घटरूप क्षेत्रके रहने पर ही जल उसे स्पर्शन करता है अतः क्षेत्रसे स्पर्शनका पृथक् कथन नहीं करना चाहिए ? उत्तर-क्षेत्र शब्द विषयवाची है जैसे राजा जनपदक्षेत्रमें रहता है यहां राजाका विषय जनपद है न कि वह सम्पूर्ण जनपदको स्पर्श करता है परन्तु स्पर्शन सम्पूर्ण विषयक होता है । क्षेत्र वर्तमानवाची है और स्पर्शन त्रिकालगोचर होता है, अर्थात् त्रैकालिक क्षेत्रको स्पर्शन कहते हैं। २० मुख्यकालके अस्तित्वकी सूचना देनेके लिए स्थितिसे पृथक् कालका ग्रहण किया है। व्यवहारकाल पर्याय और पर्यायीकी अवधिका परिच्छेद करता है। सभी पदार्थो के अधिगमके लिए किंचित् विशेषका निरूपण किया गया है। २१ यद्यपि निक्षेपोंमें 'भाव' का निरूपण है किन्तु यहां भावसे औपशमिकादि जीवभावोंके कहनेकी विवक्षा है और वहां सामान्यसे पर्यायनिरूपण की।। २२ तत्त्वाधिगमके विभिन्न प्रकारोंका निर्देश शिष्यकी योग्यता अभिप्राय और जिज्ञासाकी शान्तिके लिए किया जाता है । कोई अति संक्षेप में समझ लेते हैं कोई विस्तारसे और कोई मध्यम रीतिसे । अन्यथा 'प्रमाण' इस संक्षिप्त ग्रहणसे ही सब प्रयोजन सिद्ध हो सकते हैं तो अन्य सभी उपायोंका कथन निरर्थक हो जायगा । सम्यग्ज्ञानका वर्णन-- ___ मतिश्रुतावधिमनःपर्ययकेवलानि ज्ञानम् ॥६॥ मति श्रुत अवधि मनःपर्यय और केवल ये पांच ज्ञान हैं। ६१ मत्यावरण कर्मके क्षयोपशम होने पर इन्द्रिय और मनकी सहायतासे अर्थोका मनन मति है। यह 'मननं मतिः' भावसाधन है। 'मनुते अर्थान् मतिः' यह कर्तृसाधन भी स्वतन्त्र विवक्षामें होता है। 'मन्यते अनेन' यह करण-साधन भी मति शब्द होता है। ज्ञान और आत्माकी भेद-अभेद विवक्षामें तीनों प्रकार बन जाते हैं। २ श्रुत शब्द कर्मसाधन भी होता है । श्रुतावरण कर्मके क्षयोपशम होनेपर जो सुना जाय वह श्रुत । कर्तृसाधनमें श्रुतपरिणत आत्मा श्रुत है। करण विवक्षामें जिससे सुना जाय वह श्रुत है । भावसाधनमें श्रवणक्रिया श्रुत है। ३ अव पूर्वक धा धातुसे कर्म आदि साधनोंमें अवधि शब्द बनता है। 'अव' शब्द 'अधः'वाची है जैसे अधःक्षेपणको अवक्षेपण कहते हैं: अवधिज्ञान भी नीचेकी ओर बहुत पदार्थों को विषय करता है । अथवा, अवधिशब्द मर्यादार्थक है अर्थात् द्रव्यक्षेत्रादिकी मर्यादासे सीमित ज्ञान अवधिज्ञान है । यद्यपि केवलज्ञानके सिवाय सभी ज्ञान सीमित हैं फिर भी रूढ़िवश इसी ज्ञानको अवधिज्ञान-सीमितज्ञान कहते हैं। जैसे गतिशील सभी पदार्थ हैं पर गाय ही रूढ़िवश गौ (गच्छतीति गौः) कही जाती है। ६४ मनःपर्यय-ज्ञानावरणके क्षयोपशम होनेपर दूसरेके मनोगत अर्थको जानना मनःपर्यय है । पर मनोगत अर्थको मन कहते हैं, मनमें रहनेके कारण वह अर्थ मन कहलाता है । अर्थात् मनोविचारका विषय भावघट आदिको विशुद्धिवश जान लेना मनःपर्यय है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001811
Book TitleTattvarthvarttikam Part 1
Original Sutra AuthorBhattalankardev
AuthorMahendramuni
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1944
Total Pages454
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size11 MB
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