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१६] हिन्दी-सार
२८७ भी असद्वाद है। क्योंकि इस दशामें 'अवक्तव्य' 'यह वचन भी नहीं बोल सकेंगे जैसे कि मौनव्रती 'मैं मौनव्रती हूं' यह शब्द भी नहीं बोल सकता। अतः स्यादवक्तव्यवाद ही सत्य है। हिताहितविवेक भी इसीसे होता है।
६६-७ प्रश्न-यदि अनेकान्तमें भी यह विधि प्रतिषेध कल्पना लगती है तो जिस समय अनेकान्तमें 'नास्ति' भंग प्रयुक्त होगा उस समय एकान्तवादका प्रसङ्ग आ जाता है। और अनेकान्तमें अनेकान्त लगानेपर अनवस्था दूषण होता है । अतः अनेकान्तको अनेकान्त ही कहना चाहिए। उत्तर-अनेकान्तमें भी प्रमाण और नयकी दृष्टिसे अनेकान्त और एकान्त रूपसे अनेकमुखी कल्पनाएं हो सकती हैं। अनेकान्त और एकान्त दोनों ही सम्यक् और मिथ्याके भेदसे दो दो प्रकारके होते हैं। प्रमाणके द्वारा निरूपित वस्तुके एक देशको सयुक्ति ग्रहण करनेवाला सम्यगेकान्त है । एक धर्मका सर्वथा अवधारण करके अन्य धर्मोंका निराकरण करनेवाला मिथ्या एकान्त है । एक वस्तुमें युक्ति और आगमसे अविरुद्ध अनेक विरोधी धर्मोको ग्रहण करनेवाला सम्यगनेकान्त है तथा वस्तुको तत् अतत् आदि स्वभावसे शून्य कहकर उसमें अनेक धर्मों की मिथ्या कल्पना करना अर्थशून्य वचनविलास मिथ्या अनेकान्त है। सम्यगेकान्त नय कहलाता है तथा सम्यगनेकान्त प्रमाण । यदि अनेकान्तको अनेकान्त ही माना जाय और एकान्तका लोप किया जाय तो सम्यगेकान्तके अभावमें शाखादिके अभावमें वृक्षके अभावकी तरह तत्समुदाय रूप अनेकान्तका भी अभाव हो जायगा। यदि एकान्त ही माना जाय तो अविनाभावी इतर धर्मोका लोप होनेपर प्रकृत शेषका भी लोप होनेसे सर्वलोपका प्रसंग प्राप्त होता है।
६८ अनेकान्त छल रूप नहीं है क्योंकि जहां वक्ताके अभिप्रायसे भिन्न अर्थकी कल्पना करके वचन विघात किया जाता है वहां छल होता है। जैसे 'नवकम्बलो देवदत्तः' यहां 'नव' शब्दके दो अर्थ होते हैं । एक ९ संख्या और दूसरा नया । तो 'नूतन' विवक्षासे कहे गये 'नव' शब्दका ९ संख्या रूप अर्थविकल्प करके वक्ताके अभिप्रायसे भिन्न अर्थकी कल्पना छल कही जाती है किन्तु सुनिश्चित मुख्य गौण विवक्षासे संभव अनेक धर्मो का सुनिर्णीत रूपसे प्रतिपादन करनेवाला अनेकान्तवाद छल नहीं हो सकता, क्योंकि इसमें वचनविधात नहीं किया गया है अपितु यथावस्थित वस्तुतत्त्वका निरूपण किया गया है।
६९-१४ प्रश्न-एक आधारमें विरोधी अनेक धोका रहना असंभव है अतः अनेकान्त संशय हेतु है ? उत्तर-सामान्य धर्मका प्रत्यक्ष होनेसे विशेष धर्मों का प्रत्यक्ष न होनेपर किन्तु उभय विशेषोंका स्मरण होनेसे संशय होता है । जैसे धुंधली रात्रिमें स्थाणु और पुरुषगत ऊंचाई आदि सामान्य धर्मकी प्रत्यक्षता होने पर स्थाणुगत कोटर पक्षिनिवास तथा पुरुषगत सिर खुजाना कपड़ा हिलने आदि विशेष धर्मो के न दिखनेपर किन्तु इन विशेषोंका स्मरण रहनेपर ज्ञान दो कोटियोंमें दोलित हो जाता है कि यह स्थाण है या परुष । किन्त अनेकान्तवादमें विशेष धर्मों की अनुपलब्धि नहीं है। सभी धर्मोकी सत्ता अपनी अपनी निश्चित अपेक्षाओंसे स्वीकृत है। तत्तद् धर्मोंका विशेष प्रतिभास निर्विवाद सापेक्ष रीतिसे बताया गया है। संशयका यह आधार भी उचित नहीं है कि. 'अस्ति आदि धर्मो को पृथक्-पृथक् सिद्ध करनेवाले हेतु हैं या नहीं ? यदि नहीं है तो प्रतिपादन कैसा ? यदि हैं; तो एक ही वस्तुमें परस्पर विरुद्ध धर्मो की सिद्धि होनेपर संशय होना ही चाहिए'; क्योंकि यदि विरोध होता तो संशय होता । किन्तु अपनी अपनी अपेक्षाओंसे संभवित
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