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________________ २८६ तत्त्वार्थवार्तिक [११६ (७) आकारमें रूप रस आदि सभी हैं। घड़े के रूपको आंखसे देखकर ही घटके अस्तित्वका व्यवहार होता है अतः रूप स्वात्मा है तथा रसादि परात्मा। 'आंखसे घड़ेको देखता हूं' यहां रूपकी तरह रसादि भी घटके स्वात्मा हों तो रसादि भी चक्षुर्याह्य हो जानेसे रूपात्मक हो जायंगे फिर अन्य इन्द्रियोंकी कल्पना ही निरर्थक हो जायगी। यदि रसादिकी तरह रूप भी स्वात्मा न हो तो वह चक्षुके द्वारा दिखाई ही नहीं देगा। (८) शब्दभेदसे अर्थभेद होता ही है अतः घट शब्दका अर्थ जुदा है तथा कुट आदि शब्दोंका जुदा । घटन क्रियाके कारण घट है तथा कुटिल होने के कारण कुट। अतः घड़ा जिस समय घटन क्रियामें परिणत हो उसी समय उसे घट कहना चाहिए। इसलिए घटका घटनक्रियामें कर्त्तारूपसे उपयुक्त होनेवाला स्वरूप स्वात्मा है और अन्य परात्मा। यदि इतर रूपसे भी घट कहा जाय तो पटादिमें भी घटव्यवहारका प्रसङ्ग प्राप्त होगा। और इस तरह सभी पदार्थ एकशब्दके वाच्य हो जायंगे। (९) घटशब्दप्रयोगके बाद उत्पन्न घटज्ञानाकार स्वात्मा है क्योंकि वही अन्तरंग है और अहेय है । बाह्य घटाकार परात्मा है। अतः घड़ा उपयोगाकारसे है अन्य से नहीं। यदि उपयोगाकारसे भी अघट हो जाय तो वचन व्यवहारके मूलाधार उपयोगके अभावमें सभी व्यवहार विनष्ट हो जायँगे। (१०) चैतन्य शक्तिके दो आकार होते हैं-१ ज्ञानाकार २ ज्ञेयाकार । प्रतिबिम्ब-शून्य दर्पणकी तरह ज्ञानाकार है और प्रतिबिम्ब सहित दर्पणकी तरह ज्ञेयाकार । इनमें ज्ञेयाकार स्वात्मा है क्योंकि घटाकार ज्ञानसे ही घट व्यवहार होता है। और ज्ञानाकार परात्मा है क्योंकि वह सर्वसाधारण है। यदि ज्ञानाकारसे घट माना जाय तो पटादि ज्ञान कालमें भी घट-व्यवहार होना चाहिए। यदि ज्ञेयाकारसे भी घट 'न' माना जाय तो घटव्यवहार निराधार हो जायगा। इस प्रकार उक्त रीतिसे सूचित घटत्व और अघटत्व दोनों धर्मोंका आधार घड़ा ही होता है। यदि दोनोंमें भेद माना जाय तो घटमें ही दोनों धर्मोंके निमित्तसे होनेवाली बुद्धि और वचन प्रयोग नहीं हो सकेंगे । अतः घड़ा उभयात्मक है। क्रमसे दोनों धर्मोकी विवक्षा होनेपर घड़ा स्यात् घट भी है और अघट भी । यदि उभयात्मक वस्तुको घट ही कहा जाय तो दूसरे स्वरूपका संग्रह न होनेसे वह अतत्त्व ही हो जायगी । यदि अघट कही जाय तो घट रूपका संग्रह न होनेसे अतत्त्व बन जायगी। और कोई ऐसा शब्द है नहीं जो युगपत् उभय रूपोंका प्रधान भावसे कथन कर सके अतः युगपदुभय विवक्षामें वस्तु अवक्तव्य है। प्रथम समयमें घटस्वरूपकी मुख्यता तथा द्वितीय समयमें युगपदुभय विवक्षा होनेपर घट स्यात् घट और अवक्तव्य है। अघट रूपकी विवक्षा तथा क्रमशः युगपदुभय विवक्षा होनेपर घट स्यादघट और अवक्तव्य है। क्रमशः उभय धर्म और युगपदुभय धर्मोकी सामूहिक विवक्षा होनेपर घट स्यादुभय और अवक्तव्य है। इस तरह यह सप्तभंगी प्रक्रिया सभी सम्यग्दर्शनादिमें लगा देनी चाहिए। यदि द्रव्यार्थिक नयका एकान्त आग्रह किया जाता है तो अतत्को तत् कहनेके कारण उन्मत्त वाक्यकी तरह वह अग्राह्य हो जायगा । इसी तरह यदि पर्यायाथिकका सर्वथा आग्रह किया जाता है तो तत्को भी अतत् कहनेके कारण असद्वाद ही हो जायगा । स्याद्वाद वस्तुके यथार्थरूपका निश्चय करनेके कारण सद्वाद है । वस्तुको सर्वथा अवक्तव्य कहना Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001811
Book TitleTattvarthvarttikam Part 1
Original Sutra AuthorBhattalankardev
AuthorMahendramuni
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1944
Total Pages454
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size11 MB
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