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________________ १२६] हिन्दी-सार २८५ के द्वारा प्रकाशित ही अर्थके एक देशमें नयकी प्रवृत्ति होती है अतः प्रमाण पूज्य है । प्रमाण समुदायको विषय करता है तथा नय अवयवको। प्रमाण सकलादेशी होता है तथा नय विकलादेशी। ४ ज्ञान स्वाधिगम हेतु होता है जो प्रमाण और नयरूप होता है। वचन पराधिगम हेतु हैं। वचनात्मक स्याद्वाद श्रुतके द्वारा जीवादिकी प्रत्येक पर्याय सप्तभंगी रूपसे जानी जाती है। ६५ प्रश्नके अनुसार एक वस्तुमें प्रमाणसे अविरुद्ध विधिप्रतिषेध धर्मोकी कल्पना सप्तभंगी है। एक ही घड़ेका गौण और मुख्य रूपसे १ स्यात् घट, २ स्यात् अघट, ३ स्यात् उभय, ४ स्यात् अवक्तव्य, ५ स्यात् घट और अवक्तव्य, ६ स्यात् अघट और अवक्तव्य, ७ स्यात् उभय और अवक्तव्य इन सात रूपसे निरूपण किया जा सकता है । घट स्वस्वरूपसे है पररूपसे नहीं है। घड़ेके स्वात्मा और परात्माका विवेचन अनेक प्रकारसे होता है। यथा (१) जिसमें घट बुद्धि और घट शब्दका व्यवहार हो वह स्वात्मा तथा उससे भिन्न परात्मा है । स्वरूप ग्रहण और पररूप त्यागके द्वारा ही वस्तुकी वस्तुता स्थिर की जाती है। यदि पररूपकी व्यावृत्ति न हो तो सभी रूपोंसे घटव्यवहार होना चाहिए और यदि स्वरूप ग्रहण न हो तो निःस्वरूपत्वका प्रसङ्ग होनेसे वह खरविषाणकी तरह असत् ही हो जायगा। (२) नाम स्थापना द्रव्य और भाव निक्षेपोंका जो आधार होता है वह स्वात्मा तथा अन्य परात्मा। यदि अन्य रूपसे भी घट हो जाय तो प्रतिनियत नामादि व्यवहारका ही उच्छेद हो जायगा। (३) घटशब्दके वाच्य अनेक घड़ोंमेंसे विवक्षित अमुक घटका जो आकार आदि है वह स्वात्मा अन्य परात्मा। यदि इतर घटके आकारसे भी वह घट 'घट' हो जाय तो सभी घड़े एक घटरूप ही हो जायेंगे और इस तरह अनेकत्वमूलक घटसामान्य व्यवहार ही नष्ट हो जायगा। (४) अमुक घट भी द्रव्यदृष्टिसे अनेक क्षणस्थायी होता है। अतः अन्वयी मृद्रव्यकी अपेक्षा स्थास कोश कुशूल घट कपाल आदि पूर्वोत्तर अवस्थाओंमें भी घट व्यवहार हो सकता है इनमें स्थास.कोश कुशूल और कपाल आदि पूर्व और उत्तर अवस्थाएं परात्मा हैं तथा मध्यक्षणवर्ती घट अवस्था स्वात्मा है । उसी अवस्थासे वह घट है क्योंकि उसीमें घड़ेके गुण क्रिया आदि पाए जाते हैं। यदि उन कुशूलादि अवस्थाओंमें भी घड़ेकी उपलब्धि हो तो घटकी उत्पत्ति और विनाशके लिए किया जानेवाला पुरुषका प्रयत्न ही निष्फल हो जायगा। (५) उस मध्यकालवर्ती घटपर्यायमें भी प्रतिक्षण उपचय और अपचय होता रहता है अतः ऋजुसूत्रनयकी दृष्टिसे एकक्षणवर्ती घट ही स्वात्मा है अतीत और अनागतकालीन उस घटकी ही पर्यायें परात्मा हैं। यदि प्रत्युत्पन्न क्षणकी तरह अतीत और अनागत क्षणोंसे भी घट माना जाय तो सभी वर्तमान क्षणमात्र ही हो जायँगे। अतीत और अनागतकी तरह प्रत्युत्पन्न क्षणसे भी असत्त्व माना जाय तो जगत्से घटव्यवहारका ही लोप हो जायगा। (६) उस प्रत्युत्पन्न घटक्षणमें रूप रस गन्ध पृथुबुध्नोदराकार आदि अनेक गुण और पर्यायें हैं अतः घड़ा पृथुबुध्नोदराकारसे 'है' क्योंकि घटव्यवहार इसी आकारसे होता है अन्यसे नहीं । यदि उस आकारसे भी घड़ा 'न' हो तो घटका अभाव ही हो जायगा। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org |
SR No.001811
Book TitleTattvarthvarttikam Part 1
Original Sutra AuthorBhattalankardev
AuthorMahendramuni
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1944
Total Pages454
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size11 MB
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