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२८४ तत्त्वार्थवार्तिक
[श६ तीनका ही है। नामाद्याश्रित व्यवहारोंको उपचारसे स्वीकार करना ठीक नहीं है। क्योंकि बच्चे में क्रूरता शूरता आदि गुणोंका एकदेश देखकर उपचारसे सिंह व्यवहार तो उचित है पर नामादिमें तो उन गुणोंका एकदेश भी नहीं पाया जाता अतः नामाद्याश्रित व्यवहार औपचारिक भी नहीं कहे जा सकते। यदि नामादि-व्यवहारको औपचारिक कहा जाता है तो "गौण और मुख्यमें मुख्यका ही ज्ञान होता है"इस नियमके अनुसार मुख्य 'भाव'का ही संप्रत्यय होगा नामादि का नहीं। अर्थ प्रकरण और संकेत आदिके अनुसार नामादिका भी मुख्य प्रत्यय भी देखा ही जाता है अतः नामादि व्यवहारको औपचारिक कहना उचित नहीं है । “कृत्रिम और अकृत्रिम पदार्थों में कृत्रिमका ही बोध होता है" यह नियम भी सर्वथा एकरूप नहीं है। यद्यपि 'गोपालको लाओं' यहां जिसकी गोपाल संज्ञा है वही व्यक्ति लाया जाता है न कि जो गायोंको पालता है वह । तथापि इस नियमकी उभयरूपसे प्रवृत्ति देखी जाती है। जैसे किसी प्रकरणके न जाननेवाले गांवडेके व्यक्तिसे 'गोपालको लाओ' यह कहनेपर उसकी दोनों गति होंगी-वह गोपाल नामक व्यक्तिको जिस प्रकार लायगा उसी तरह गायके पालनेवालेको भी ला सकता है। लोकमें अर्थ और प्रकरणसे कृत्रिममें प्रत्यय देखा जाता है। फिर सामान्य दृष्टिसे नामादि भी अकृत्रिम ही हैं। इनमें कृत्रिमत्व और अकृत्रिमत्वका अनेकान्त है।
६३१-३३ प्रश्न-जब नाम स्थापना और द्रव्य द्रव्यार्थिक नयके विषय हैं तथा भाव पर्यायार्थिक नयका। अतः इनका नयोंमें ही अन्तर्भाव हो जाता है और नयोंका कथन आगे होगा ही ? उत्तर-विनेयोंको समझानेके अभिप्रायसे दो तीन आदि नयोंका संक्षेप या विस्तारसे कथन किया जाता है। जो विद्वान् शिष्य हैं वे दो नयोंके द्वारा ही सभी नयोंके वक्तव्य-प्रतिपाद्य अर्थोंको जान लेते हैं उनकी अपेक्षा पृथक् कथनका प्रयोजन न भी हो पर जो मन्दबुद्धि हैं उनके लिए पृथक् नय और निक्षेपका कथन करना ही चाहिए। विषय और विषयीकी दृष्टिसे नय और निक्षेपका पृथक् पृथक् निरूपण है।
३४-३७, यद्यपि सम्यग्दर्शनादिका प्रकरण था अतः सूत्र में तत्' शब्दका ग्रहण किए बिना भी सम्यग्दर्शनादिके साथ नामादिका सम्बन्ध हो जाता फिर भी प्रधान सम्यग्दर्शनादि और गौण विषयभूत जीवजीवादि सभीके साथ नामादिका सम्बन्ध द्योतन करनेके लिए विशेष रूपसे 'तत्' शब्दका ग्रहण किया है। 'अनन्तरका ही विधि या निषेध होता है' इस नियमके अनुसार जीवादिका ही सम्बन्ध होगा सम्यग्दर्शनादिका नहीं' इस शंका का समाधान तो यह है कि-जीवादि सम्यग्दर्शनादिके विषय होनेसे गौण हैं, अतः प्रत्यासन्न होनेपर भी मुख्य सम्यग्दर्शनादिका ही ग्रहण किया जायगा । फिर-'विशेष बात प्रकरणागत सामान्यमें बाधा नहीं दे सकती' इस नियमके अनुसार विषय विशेषके रूपमें कहे गए जीवादि पदार्थ प्रकरणागत सम्यग्दर्शनादिके ग्रहणके बाधक नहीं हो सकते । तत्त्वाधिगमके उपाय
प्रमाणनयैरधिगमः ॥६॥ प्रमाण और नयों से जीवादि पदार्थों का अधिगम-ज्ञान होता है।
११-३ व्याकरणशास्त्रके 'अल्प अक्षरवाले पदका पूर्व प्रयोग करना चाहिए' इस नियमके अनुसार नयका प्रथम ग्रहण करना चाहिए था; किन्तु उक्त नियमके बाधक 'पूज्यका पूर्व निपात होता है' इस नियमके अनुसार 'प्रमाण' पदका प्रथम ग्रहण किया है । प्रमाण
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