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________________ १५] हिन्दी-सार २८३ रखे स्थापना हो ही नहीं सकती तो भी स्थापित जिन आदिमें पूजा आदर और अनुग्रहाभिलाषा होती है जबकि केवल नाममें नहीं । अतः इन दोनोंमें अन्तर है । १३ यद्यपि द्रव्य और भावकी पृथक् सत्ता नहीं है, दोनोंमें अभेद है, फिर भी संज्ञा लक्षण आदिकी दृष्टिसे इन दोनोंमें भिन्नता है । 8 १४-१८ प्रश्न - सबसे पहिले द्रव्यका ग्रहण करना चाहिए; क्योंकि द्रव्यके ही नाम स्थापना आदि निक्षेप किए जाते हैं ? उत्तर - चूँकि समस्त लोकव्यवहार संज्ञा अर्थात् नामसे चलते हैं अतः संव्यवहारमें मुख्य हेतु होनेंसे नामका सर्वप्रथम ग्रहण किया है । स्तुति निन्दा राग द्वेष आदि सारी प्रवृत्तियां नामाधीन हैं। जिसका नाम रख लिया गया है उसीकी 'यह वही है' इस प्रकार स्थापना होती है । अतः नामके बाद स्थापनाका ग्रहण किया है । द्रव्य और भाव पूर्वोत्तरकालवर्ती हैं । अतः पहिले द्रव्य और बादमें भावका ग्रहण किया है । अथवाभावके साथ निकटता और दूरीकी अपेक्षा इनका क्रम समझना चाहिए । भाव प्रधान है क्योंकि भावकी व्याख्या ही अन्यके द्वारा होती है। भावके निकट द्रव्य है क्योंकि दोनोंका सम्बन्ध है । इसके पहिले स्थापना इसलिए रखी गई है कि वह अतद्रूप पदार्थ में तद्बुद्धि करानेप्रधान कारण है। उससे पहिले नामका ग्रहण किया है क्योंकि वह भावसे अत्यन्त दूर है । $ १९ - २५ प्रश्न - विरोध होनेके कारण एक जीवादि अर्थके नामादि चार निक्षेप नहीं हो सकते। जैसे नाम नाम ही है स्थापना नहीं । यदि उसे स्थापना माना जाता है तो उसे नाम नहीं कह सकते। यदि नाम कहते हैं तो वह स्थापना नहीं हो सकती क्योंकि उनमें विरोध है । उत्तर - एक ही वस्तुमें लोकव्यवहारमें नाम आदि चारों व्यवहार देखे जाते हैं अतः उनमें कोई विरोध नहीं है । इन्द्र नामका व्यक्ति है । मूर्तिमें इन्द्रकी स्थापना होती है । इन्द्रकी प्रतिमा बनानेके लिए लाए गए काष्ठको भी लोग इन्द्र कह देते हैं। आगेकी पर्यायकी योग्यतासे भी इन्द्र, राजा, सेठ आदि व्यवहार होते हैं तथा शचीपति इन्द्रमें भाव - व्यवहार प्रसिद्ध ही है । शंकाकारने जो दृष्टान्त दिया है कि नाम नाम ही है स्थापना नहीं, वह ठीक नहीं है क्योंकि यह कहा ही नहीं जा रहा है कि नाम स्थापना है किन्तु नाम स्थापना द्रव्य और भावसे एक वस्तुके चार प्रकारसे व्यवहार की बात है । जैसे ब्राह्मण मनुष्य अवश्य होता है क्योंकि ब्राह्मणमें मनुष्य जातिरूप सामान्य अवश्य पाया जाता है पर मनुष्य ब्राह्मण हो न भी हो उसी तरह स्थापना 'नाम' अवश्य होगी क्योंकि बिना नामकरणके स्थापना नहीं होती परन्तु जिसका नाम रखा है उसकी स्थापना हो भी न भी हो । इसी तरह द्रव्य 'भाव' अवश्य होगा क्योंकि उसकी उस योग्यताका विकास अवश्य होगा परन्तु भाव 'द्रव्य' हो भी न भी हो क्योंकि उस पर्यायमें आगे अमुक योग्यता रहे भी न भी रहे । अतः नामस्थापनादिमें परस्पर अनेकान्त है । छाया और प्रकाश तथा कौआ और उल्लूमें पाया जानेवाला सहानवस्था और बध्यघातक विरोध विद्यमान ही पदार्थोंमें होता है अविद्यमान खरविषाण आदि में नहीं। अतः विरोधकी संभावनासे ही नामादिचतुष्टयका अस्तित्व सिद्ध हो जाता है । विरोध यदि नामादिरूप है तो वह उनके स्वरूपकी तरह विरोधक नहीं हो सकता । यदि नामादिरूप नहीं है तो भी विरोधक नहीं हो सकता । इस तरह तो सभी पदार्थ परस्पर एक दूसरेके विरोधक हो जायंगे । 8 २६-३० प्रश्न - भाव निक्षेपमें वे गुण आदि पाए जाते हैं अतः इसे ही सत्य कहा जा सकता है नामादिको नहीं । उत्तर - ऐसा माननेपर नाम स्थापना और द्रव्यसे होनेवाले यावत् लोकव्यवहारोंका लोप हो जायगा । लोक व्यवहारमें बहुभाग तो नामादि Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001811
Book TitleTattvarthvarttikam Part 1
Original Sutra AuthorBhattalankardev
AuthorMahendramuni
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1944
Total Pages454
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size11 MB
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