________________
२८२ तत्त्वार्थवार्तिक
[११५ तत्त्वोंमें सर्वप्रथम जीवको स्थान दिया गया है। शरीर वचन मन श्वासोच्छ्वास आदिके द्वारा अजीव आत्माका प्रकृष्ट उपकारक है अतः जीवके बाद अजीवका ग्रहण किया गया है । जीव और पुद्गलके सम्बन्धाधीन ही आस्रव होता है और आस्रवपूर्वक बन्ध अतः इन दोनोंका क्रमशः ग्रहण किया है। संवृत-सुरक्षित व्यक्तिको बंध नहीं होता अतः बंधकी विपरीतता दिखानेके लिए बंधके पास संवरका ग्रहण किया है। संवर होनेपर ही निर्जरा होती है अतः संवरके बाद निर्जराका ग्रहण किया है । अन्तमें मोक्ष प्राप्त होता है अतः सबके अन्तमें मोक्षका ग्रहण किया गया है।
२८ आसव और बंध या तो पुण्यरूप होते हैं या पापरूप । अतः पुण्य और पाप पदार्थोंका अन्तर्भाव इन्हीं में कर दिया जाता है।
२९-३१ प्रश्न-सूत्रमें तत्त्व शब्द भाववाची है और जीवादि शब्द द्रव्यवाची, अतः इनका व्याकरण शास्त्रके नियमानुसार एकार्थ प्रतिपादकत्वरूप सामानाधिकरण्य नहीं बन सकता? उत्तर-द्रव्य और भावमें कोई भेद नहीं है, अतः अभेद विवक्षामें दोनों ही एकार्थप्रतिपादक हो जाते हैं जैसे ज्ञान ही आत्मा है। चूंकि तत्त्व शब्द उपात्त-नपुसकलिंग और एकवचन है अतः जीवादिकी तरह उसमें पुल्लिगत्व और बहुवचनत्व नहीं हो सकता। जीवादितत्त्वोंके संव्यवहारके लिए निक्षेप प्रक्रियाका निरूपण
नामस्थापनाद्रव्यभावतस्तन्न्यासः ॥५॥ नाम स्थापना द्रव्य और भावसे जीवादि पदार्थोंका न्यास करना चाहिए।
१ शब्द प्रयोगके जाति गुण क्रिया आदि निमित्तोंकी अपेक्षा न करके की जानेवाली संज्ञा नाम है। जैसे परमैश्वर्यरूप इन्दन क्रियाकी अपेक्षा न करके किसीका भी इन्द्र नाम रखना या जीवनक्रिया और तत्त्वश्रद्धानरूप क्रियाकी अपेक्षाके बिना जीव या सम्यग्दर्शन नाम रखना।
२ 'यह वही है' इस रूपसे तदाकार या अतदाकार वस्तु किसीकी स्थापना करना स्थापना निक्षेप है, यथा-इन्द्राकार प्रतिमा इन्द्रकी या शतरंजके मुहरोंमें हाथी घोड़ा आदिकी स्थापना करना।
__$३-७ आगामी पर्यायकी योग्यतावाले उस पदार्थको द्रव्य कहते हैं जो उस समय उस पर्यायक अभिमुख हो। जैसे इन्द्रप्रतिमाके लिए लाए गए काठको भी इन्द्र कहना। इसी तरह जीव पर्याय या सम्यग्दर्शन पर्यायके प्रति अभिमुख द्रव्यजीव या द्रव्यसम्यग्दर्शन कहा जायगा।
प्रश्न-यदि कोई अजीव जीवपर्यायको धारण करनेवाला होता तो द्रव्यजीव बन सकता था अन्यथा नहीं ? उत्तर-यद्यपि सामान्यरूपसे द्रव्यजीव नहीं है फिर भी मनुष्यादि विशेष पर्यायोंकी अपेक्षा 'द्रव्यजीव' का व्यवहार कर लेना चाहिए। आगमद्रव्य और नोआगमद्रव्यके भेदसे द्रव्य दो प्रकारका है। जीवशास्त्रका अभ्यासी पर तत्काल तद्विषयक उपयोगसे रहित आत्मा आगमद्रव्यजीव है। नोआगमद्रव्यजीव ज्ञाताका त्रिकालवर्ती शरीर, भावि पर्यायोन्मुख द्रव्य और कर्म नोकर्मके भेदसे तीन प्रकारका होता है।
६८-११ वर्तमान उस उस पर्यायसे विशिष्ट द्रव्यको भावजीव कहते हैं। जीवशास्त्रका अभ्यासी तथा उसके उपयोगमें लीन आत्मा आगमभावजीव है। जीवनादि पर्यायवाला जीव नोआगमभावजीव है।
१२ यद्यपि नाम और स्थापना दोनों निक्षेपोंमें संज्ञा रखी जाती हैं। बिना नाम
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org